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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०५३ अविद्यावशादेव भेदव्यवस्था इति चेत्तदनूद्य दूषयति बंभसहावेभिण्णा जइ हु अविज्जा वियप्पसे कह वा। ता तं जदा सहावं अह पुव्वुत्तं पलोएज्जा ॥५३॥ यदि सर्वपक्षेषु दोषास्तहि के वास्तवा इत्यत आह वत्थू हवेइ तच्चं वत्थंसा पुण हवंति भयणिज्जा। सिय साविक्खा वत्थू भणंति इयरा दु णो जम्हा ॥५४॥ इस परसे ब्रह्माद्वैतवादीका कहना है कि अविद्याके कारण भेदकी प्रतीति होती है, अतः भेदकी प्रतीति वास्तविक नहीं है, इसका उत्तर ग्रन्थकार देते हैं यदि ब्रह्मस्वरूपसे अविद्याको भिन्न मानते हो तो ब्रह्म अद्वैत रूप न होकर द्वतिरूप हो जाता है और यदि अभिन्न मानते हो तो पूर्वोक्त भेद कैसे बन सकता है, इसका विचार करो॥५३।। विशेषार्थ-जैन पूछते हैं कि अविद्याके कारण यदि भेदकी प्रतीति होती है तो वह अविद्या ब्रह्मसे भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो वस्तुरूप है या अवस्तुरूप ? अवस्तुरूप तो हो नहीं सकती, क्योंकि ब्रह्मकी तरह वह भी कार्यकारी है और जो कार्यकारी होता है वह अवस्तु नहीं हो सकता। यदि वस्तुरूप है तो ब्रह्म और अविद्या इन दो वस्तुओंके होनेसे अद्वैतके अभावका प्रसंग आता है। यदि अविद्या ब्रह्मसे अभिन्न है तो ब्रह्म भी मिथ्या सिद्ध होता है, क्योंकि वह मिथ्यारूप अविद्यासे अभिन्न है। अथवा अविद्याके वास्तविक होने का प्रसंग आता है क्योंकि वह सत्यरूप ब्रह्मसे अभिन्न है। और ऐसी स्थितिमें सत्यरूप अविद्या मिथ्या प्रतीतिका हेतु कैसे हो सकती है ? अतः ब्रह्मवाद भी ठीक नहीं है। ऐसी स्थितिमें यदि सभी मत सदोष हैं तो वास्तविक क्या है ? शिष्यकी इस जिज्ञासाका समाधान करनेके लिए आचार्य कहते हैं वस्तु तत्त्व है, किन्तु वस्तुके अंश भजनीय हैं। यदि वे अंश स्यात् सापेक्ष होते हैं तो वस्तुरूप हैं और यदि निरपेक्ष हैं तो वस्तुरूप नहीं हैं ॥५४॥ विशेषार्थ-वस्तु एक अखण्ड है,किन्तु उसकी दो आत्माएं हैं-द्रव्य और पर्याय । इसीसे वस्तुको द्रव्यपर्यायात्मा कहा जाता है। किन्तु द्रव्य और पर्याय दो जुदी वस्तुएं नहीं हैं। किन्तु एक ही वस्तु के दो रूप हैं। अभेदात्मक रूपको द्रव्यसंज्ञा है और भेदात्मक रूपकी पर्यायसंज्ञा है। इसीसे वस्तुको भेदाभेदात्मक भी कहा जाता है। अतः वस्तु न केवल द्रव्यरूप है और न केवल पर्यायरूप है ,किन्तु द्रव्य पर्यायात्मक है । द्रव्य और पर्याय न वस्तु हैं और न अवस्तु हैं, किन्तु वस्तु के एकदेश हैं । जैसे समुद्रका अंश न समुद्र है और न असमुद्र है, किन्तु समुद्रका एक देश है। ब्रह्मवादी पर्यायको अवास्तविक मानते हैं और पर्यायसे भिन्न द्रव्यको वास्तविक मानते हैं। बौद्ध द्रव्यको अवास्तविक मानते है और द्रव्यसे भिन्न पर्यायको वास्तविक मानते हैं। किन्तु द्रव्य और पर्यायमें-से एकको ही माननेपर और दूसरेको नहीं माननेपर कार्य नहीं हो सकता। न तो पर्यायनिरपेक्ष द्रव्य ही अर्थक्रियाकारी है और न द्रव्यनिरपेक्ष पर्याय ही अर्थक्रियाकारी है। किन्तु अनेक पर्यायात्मक द्रव्य ही अर्थक्रियाकारी है। वे द्रव्य और पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं हैं । जो सर्वथा भिन्न होते हैं वे द्रव्य पर्याय नहीं होते, जैसे सह्य पर्वत और विन्ध्य पर्वत । अतः एक द्रव्य ही है,पर्याय नहीं हैं या पर्याय ही हैं, एक द्रव्य नहीं हैं ये दोनों मान्यताएं सदोष है । क्योंकि निरपेक्ष द्रव्य या निरपेक्ष पर्याय अवस्तु है। हाँ, ज्ञाता प्रयोजनवश यदि पर्यायको गौण करके द्रव्यमुखेन वस्तुका प्रतिपादन करता है या द्रव्यको गौण करके पर्यायरूप वस्तुका प्रतिपादन करता है तो वह गलत नहीं है। क्योंकि वस्तुके दो रूपोंमें-से एकको गौण और दूसरेको मुख्य कर देनेसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपका घात नहीं होता। इसीसे ग्रन्थ १.-नाऽभिण्णा मु०। २. ता तं तस्स सहावं मु० । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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