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नयचक्र
अथ तस्यापि विशेष व्याख्यानार्थमधिकारारम्भः-
गुणपज्जाया दवियं काया पंचत्थि सत्त तच्चाणि । to वि व पत्था पमाण णय तह य णिक्खेवं ॥ ८॥ दंसणणाणचरिते कमसो उवयारभेदइदरेहिं । दव्वसहावयासे' अहियारा बारसवियप्पा ॥९॥
सूत्रनिर्देशः । तत्राधिकारत्रयाणां प्रयोजनं निर्दिशति' - 'णायव्वं' इति - यवं दवियाणं लक्खणसंसिद्धिहेउ गुणणियरं । तह पज्जाय सहावं एयंतविणासणट्ठा वि ॥१०॥
आगे उक्त पीटिका निर्देशका विशेष व्याख्यान करनेके लिए अधिकारोंका निर्देश करते हैंपञ्चास्तिद्रव्यस्वभावप्रकाश नामक इस ग्रन्थ में बारह अधिकार हैं-गुण, पर्याय, द्रव्य, कोय, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, प्रमाण, नय, निक्षेप और उपचार तथा निश्चयके भेद से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ॥ ८-९ ॥
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इनको
विशेषार्थ - इस द्रव्यस्वभावप्रकाश नामक ग्रन्थ में ग्रन्थकारने उक्त बारह अधिकारोंके द्वारा वर्णन करनेका निर्देश किया है । जैसा जैसा अधिकारका नाम है, उसीके अनुरूप उसमें कथन किया गया है। इन बारह अधिकारोंमें एक तरहसे द्रव्यानुयोगकी पूरी कथनी समाविष्ट हो जाती है। बल्कि यह कहना चाहिए कि जैन तत्त्वज्ञानकी प्रायः सभी आवश्यक जानकारी आ जाती है । जैन सिद्धान्त में छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व, और नौ पदार्थ | गुण और पर्यायोंके आधारको द्रव्य कहते हैं । इस तरह गुण, पर्याय, द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नौ पदार्थ, सात तत्त्व इनमें सब ज्ञेय समाविष्ट हो जाता है । प्रमाण, नय और निक्षेप ये ज्ञेय को सम्यक् रीति से समझने के -- जानने के मुख्य साधन हैं । इसीसे कहा है- 'प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा जो पदार्थोंको सम्यक् रीतिसे नहीं जानता, उसे युक्त बात अयुक्त प्रतीत होती है और अयुक्त बात युक्त प्रतीत होती हैं । अतः जिनागममें इनका बड़ा महत्त्व है । समझे बिना द्रव्य के स्वभावको भी सम्यक् रीति से नहीं समझा जा सकता है । और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र तो मोक्षका मार्ग हैं | इनका कथन भी जिनागममें दो दृष्टियोंसे किया गया है। उनमें से एक दृष्टिका नाम व्यवहार दृष्टि है, उसके लिए ही ग्रन्थकारने उपचार शब्दका प्रयोग किया है। दूसरी दृष्टि निश्चयदृष्टि है, उसे परमार्थ भी कहते हैं। प्रमाण, नय, निक्षेपके द्वारा द्रव्यादिका स्वभाव जानकर भी यदि सम्यग्दर्शन आदिके स्वरूपको सम्यक् रीतिसे नहीं समझा, तो उस जाननेका कोई यथार्थ लाभ नहीं हुआ । क्योंकि द्रव्यस्वभावको जानकर यदि उस स्वभाव में आयी हुई विकृतिको दूर करनेका प्रयत्न नहीं किया अर्थात् अपने स्वभावको जानकर भी यदि विभाव में ही मग्न रहा, तो स्वभावको जाननेसे क्या लाभ हुआ ! अतः आत्मस्वरूपकी श्रद्धा उसका सम्यग्ज्ञान और उसमें सम्यक् आचरण भी तो होना चाहिए । इसीलिए इस " द्रव्यस्वभावप्रकाश " नामक ग्रन्थमें उनका भी कथन करनेका निर्देश उन बारह अधिकारोंमें किया हैं जो सर्वथा उचित है ।
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उक्त अधिकारोंका क्रमसे कथन करनेसे पूर्व ग्रन्थकार आदिके तीन अधिकारोंका प्रयोजन बतलाते हैं-
एकान्तका विनाश करनेके लिए द्रव्योंका लक्षण, उनकी सम्यक् सिद्धिमें कारणभूत गुणोंका समुदाय तथा पर्यायका स्वभाव भी जानना चाहिए ।। १० ।।
विशेषार्थ - वारह अधिकारोंमें ग्रन्थकारने सबसे प्रथम गुण पर्याय और द्रव्य अधिकार को रखा है । इनको प्रथम रखनेका प्रयोजन बतलाते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि जब तक द्रव्यके लक्षणका और जिन गुणोंके समुदायसे वह द्रव्य बना हुआ है, उन गुणोंका और पर्यायोंके स्वरूपका बोध नहीं होगा, तब तक १. पयासो क० ख० ज० । २. दर्शयति क० ख० ज० ।
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