________________
३४
नयचक्र
दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते। स्थितिस्तत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः ॥
-पद्म. पंच. ४।१४ दोनों आचार्यों ने यद्यपि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के इन लक्षणों को कहते हुए उनके साथ निश्चय पद नहीं लगाया है, फिर भी चूँकि स्वाश्रित आत्माश्रित कथन को निश्चय कहते हैं। अतः ये लक्षण निश्चयरत्नत्रय के ही जानना; क्योंकि अन्य शास्त्रों में भी इनके लक्षण कहे गये हैं। वे इनसे भिन्न प्रतीत होते हैं, क्योंकि उनमें केवल आत्मा के ही श्रद्धानादि की बात नहीं है, किन्तु आत्मा के श्रद्धानादि में उपयोगी प्रतीत होनेवाले देव-शास्त्र-गुरु और सात तत्त्वों के श्रद्धानादि को सम्यग्दर्शन आदि कहा है। अतः अन्य वस्तुपरक या भेदबुद्धिपरक होने से उन्हें व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यक्चारित्र नाम दिया गया है। इस तरह निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग की तरह रत्नत्रय के भी दो प्रकार हो गये हैं-निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रय। जैसे व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग में साध्यसाधन भाव है, वैसे ही निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रय में भी साध्य-साधन भाव है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि व्यवहाररत्नत्रय ही व्यवहार मोक्षमार्ग है और निश्चयरत्नत्रय निश्चय मोक्षमार्ग है। मोक्ष का मार्ग तो रत्नत्रय ही है, उसी का निरूपण दो नयों से किया जाता है। निश्चयनय शुद्ध द्रव्य के आश्रित है, उसमें साध्य
और साधन का भेद नहीं है। व्यवहारनय स्व और पर के निमित्त से होनेवाली पर्याय के आश्रित है। उसमें साध्य और साधन का भेद है।
अमृतचन्द्रजी ने 'पंचास्तिकाय' की टीका के अन्त में कहा है कि जिन जीवों की बुद्धि अनादि काल से भेद-भावना की वासना में डूबी हुई है, ऐसे प्राथमिक जन व्यवहारनय से भिन्न साध्य-साधनभाव का अवलम्बन करके सुखपूर्वक भवसागर को पार करते हैं। सबसे प्रथम वे यह विवेक करते हैं कि यह श्रद्धा करने के योग्य है और यह श्रद्धा करने के अयोग्य है, यह श्रद्धान करनेवाला है और यह श्रद्धान है। इसी तरह यह जानने के योग्य है और यह जानने के अयोग्य है, यह ज्ञाता (जाननेवाला) है और यह ज्ञान है। यह आचरण करने योग्य है और यह आचरण नहीं करने योग्य है, यह आचरण करनेवाला है और यह आचरण है। इस प्रकार सर्वप्रथम श्रद्धेय, अश्रद्धेय, श्रद्धाता और श्रद्धान को ज्ञेय, अज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान को, आचरणीय, अनाचरणीय, आचरिता और आचरण को समझ लेना आवश्यक है। जब तक इन्हें नहीं समझता, तब तक व्यवहार मोक्षमार्ग के भी पालन करने का अधिकारी नहीं होता। और जब व्यवहार मोक्षमार्ग का ही अधिकारी नहीं होता, तब निश्चय मोक्षमार्ग की तो कथा ही व्यर्थ है? व्यवहार मोक्षमार्ग रूप व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यक्चारित्र का विषय आत्मा से भिन्न है। व्यवहार सम्यग्दर्शन का विषय सात तत्त्व, नौ पदार्थ तथा उसके प्रवक्ता देवगुरु वगैरह हैं। व्यवहार सम्यग्ज्ञान का विषय शास्त्र है और व्यवहारचारित्र का विषय श्रावक
और मुनि का आगमोक्त आचार है। किन्तु इन सब साधनों का लक्ष्य आत्मा ही है, उसी की यथार्थ श्रद्धा, यथार्थ ज्ञान और उसी में स्थिति के लिए व्यवहार मोक्षमार्ग को अपनाया जाता है। यदि उसका लक्ष्य संसार है, तो वह व्यवहार मोक्षमार्ग भी नहीं है। 'पंचास्तिकाय' में आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहाररत्नत्रय का स्वरूप इस प्रकार कहा है
सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं ।
चारितं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ॥१०७॥ आचार्य अमृतचन्द्र ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है- कालद्रव्य सहित पाँच अस्तिकाय और नौ पदार्थ भाव हैं। मिथ्यादर्शन के उदय से इनका जो अश्रद्धान है, उसके अभावपूर्वक जो श्रद्धानरूप भाव है वह सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन शुद्ध चैतन्य रूप आत्मतत्त्व के निश्चय का बीज है अर्थात् इसी व्यवहार सम्यग्दर्शन में से शुद्ध चैतन्यरूप आत्मतत्त्व के निश्चय का अंकुर प्रस्फुटित होता है। जैसे नाव में यात्रा करने पर वृक्षादि चलते हुए प्रतीत होते हैं, वैसे ही मिथ्यात्व के उदय से उक्त पदार्थ विपरीत प्रतीत होते हैं। मिथ्यात्व का उदय हट जाने पर उक्त पदार्थों का यथार्थ बोध होना सम्यग्ज्ञान है। यह सम्यग्ज्ञान कुछ अंशों में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org ..