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________________ प्रस्तावना इसकी टीका में अमृतचन्द्रजी ने कहा है आत्मा में दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही नहीं हैं । किन्तु अनन्त धर्मवाली एक वस्तु को न जाननेवाले शिष्य को उसका ज्ञान कराने के लिए आचार्यगण, यद्यपि धर्म और धर्मी में स्वभाव से अभेद है, फिर भी नामादि कथन से भेद उत्पन्न करके व्यवहार से ही ऐसा कहते हैं कि आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र है । परमार्थ से तो अनन्त धर्मों को अभेद रूप से पिये हुए एक द्रव्य है । अतः उसमें भेद नहीं है। अतः जहाँ भेद-दृष्टि या व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है, वहाँ परमार्थ या निश्चय दृष्टि से सम्यग्दर्शनादिमय आत्मा को मोक्षमार्ग कहा है। यथा सम्मदंसण णाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे । ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा ॥३६॥ इसलिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उपासना वस्तुतः आत्मा की ही उपासना है। उस उपासना का लक्ष्य वही है, अन्य द्रव्य नहीं । यही आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः । एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ॥ २३६ ॥ Jain Education International -समयसारकलश यतः आत्मा का स्वरूप दर्शनज्ञानचारित्र रूप है अतः मुमुक्षु को उस एक मोक्षमार्ग का ही सेवन करना चाहिए। अतः व्यवहार मोक्षमार्ग भेद रत्नत्रय स्वरूप है और निश्चय मोक्षमार्ग अभेद रत्नत्रय स्वरूप है। प्रथम साधन है दूसरा साध्य है; किन्तु वस्तुतः साध्य और साधन दो नहीं हैं, बल्कि एक ही साध्य और साधन के भेद से दो रूप हो रहा है। वही उपासनीय है; यथा एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभेदेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥१५॥ - द्रव्यसंग्रह ३३ -समयसारकलश 'समयसार' गा. १६ की टीका में अमृतचन्द्रजी ने कहा है जिस भाव से आत्मा साध्य और साधन है, उसी भाव से उसकी नित्य उपासना करना चाहिए। व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान, चारित्र की उपासना करनी चाहिए। किन्तु तीनों ही परमार्थ से एक आत्मरूप ही हैं; अन्य वस्तुरूप नहीं हैं । जैसे देवदत्त नाम के किसी व्यक्ति के ज्ञान, श्रद्धान और अनुचरण देवदत्त रूप ही हैं; क्योंकि वे देवदत्त के स्वभाव का उल्लंघन नहीं करते हैं । अतः वे अन्य वस्तु रूप नहीं हैं, उसी तरह आत्मा में भी आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और अनुचरण आत्मा के स्वभाव का उल्लंघन न करने के कारण आत्मरूप ही हैं; अन्य नहीं हैं। अतः एक आत्मा ही उपासनीय है, यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है। इसलिए निश्चय से आत्मा का विनिश्चय - श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। आत्मा का ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में स्थिति निश्चय चारित्र है । यही बात 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' में अमृतचन्द्रजी ने तथा 'पद्मनन्दि पंचविंशति' में आचार्य पद्मनन्दि ने कही है दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कथमेतेभ्यो भवति बन्धः ॥ For Private & Personal Use Only - पुरुषार्थ. २१६ www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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