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प्रस्तावना
२६
विद्यमान है। जहाँ जीव रहता है, वहाँ भी पहले से ही बिना बुलाये वर्तमान है । ऐसी स्थिति में संसारी जीव अपने चैतन्य स्वभाव को अपनाये हुए ही अनादि बन्धन से बद्ध होने से मोह, राग, द्वेष रूप अशुद्धभाव करता है । जब जहाँ वह मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव करता है, वहाँ उसी समय जीव के उन भावों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वभाव से ही जीव की ओर आकृष्ट होते हैं और जीव के प्रदेशों में परस्पर अवगाह रूप से प्रविष्ट होकर दूध-पानी की तरह मिलकर जीव से बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे लोक में सूर्य की किरणों का निमित्त पाकर सन्ध्या, इन्द्रधनुष आदि रूप से पुद्गलों का परिणमन बिना किसी अन्य कर्ता के स्वयं होता देखा जाता है, वैसे ही अपने योग्य जीव परिणामों का निमित्त पाकर कर्म भी बिना किसी अन्य कर्ता के ज्ञानावरण आदि रूप से स्वयं परिणमते हैं। इस तरह यद्यपि जीव और अजीव (पुद्गल) दो मूल पदार्थ हैं। दोनों का अस्तित्व पृथक्-पृथक् होने के साथ दोनों के स्वभाव भी भिन्न हैं । फिर भी जीव और पुद्गल का अनादि संयोग होने से सात अन्य पदार्थों की सृष्टि होती है। जीव के शुभ परिणाम भावपुण्य हैं और भावपुण्य के निमित्त से होनेवाला पौद्गलिक कर्मों का शुभ प्रकृतिरूप परिणाम द्रव्यपुण्य है । इसी तरह जीव के अशुभ परिणाम भाव पाप है । उसका निमित्त पाकर होनेवाला पौद्गलिक कर्मों का अशुभ प्रकृति रूप परिणाम द्रव्यपाप है । जीव के मोह - राग-द्वेषरूप परिणाम भावास्रव है और उसका निमित्त पाकर योग द्वारा आनेवाले पुद्गलों का कर्मरूप परिणाम द्रव्यास्रव है। मोह-राग-द्वेष द्वारा जीव के स्निग्ध हुए परिणाम भावबन्ध हैं और इस भावबन्ध के निमित्त से कर्मरूप परिणत हुए पुद्गलों का जीव के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप विशिष्ट सम्बन्ध द्रव्यबन्ध है । जीव के मोह-राग-द्वेषरूप परिणामों का निरोध भावसंवर है और उसके निमित्त से योग द्वारा आते हुए पुद्गलों का कर्मरूप परिणाम का रुकना द्रव्यसंवर है। कर्म की शक्ति को नष्ट करने में समर्थ जीव का शुद्धोपयोग भाव निर्जरा है और उसके निमित्त से नीरस हुए बद्धकर्म पुद्गलों का एकदेश क्षय द्रव्यनिर्जरा है । और जीव का शुद्धात्मोपलब्धि रूप जो परिणाम कर्मों का निर्मूलन करने में समर्थ है, वह भावमोक्ष है और भावमोक्ष के निमित्त से जीव के साथ कर्मपुद्गलों का अत्यन्त विश्लेष द्रव्यमोक्ष है। ये नव पदार्थ हैं। इनमें से भाव पुण्य, भाव पाप भावास्रव, भावबन्ध, भावसंवर, भावनिर्जरा, भावमोक्ष जीवरूप हैं और द्रव्यपुण्य, द्रव्यपाप, द्रव्यास्रव, द्रव्यबन्ध, द्रव्यसंवर, द्रव्यनिर्जरा, द्रव्यमोक्ष ये अजीवरूप हैं। इनमें पुण्य-पाप को कम कर देने से सात तत्त्व कहे जाते हैं। ऊपर भाव को कर्म में और कर्म को भाव में निमित्त कहा है। इस निमित्त नैमित्तिक भाव को लेकर द्रव्य और भाव में कार्य-कारण भाव कहा जाता है। इसका विश्लेषण पंचास्तिकाय (गा. ६० आदि) में तथा उसकी टीका में किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है- व्यवहार से निमित्तमात्र होने से जीव के भाव का कर्म कर्ता है और कर्म का भी जीव का भाव कर्ता है, किन्तु निश्चय से न तो जीव के भावों का कर्म कर्ता है और न कर्म का कर्ता जीव का भाव है; किन्तु बिना कर्ता के भी भाव और कर्म नहीं हो सकते। अतः निश्चय से जीव के परिणामों का जीव कर्ता है और कर्म के परिणामों का कर्म कर्ता है।
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दूसरी ज्ञातव्य बात यह है कि ऊपर दो द्रव्यों के संयोग का परिणाम सात पदार्थ कहे हैं, वे भूतार्थनय से हैं या अभूतार्थनय से हैं? समयसार गा. १३ की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए अभूतार्थनय से इनका कथन किया गया है। बाह्य दृष्टि से जीव और पुद्गल की अनादिबन्ध पर्याय को लेकर यदि एकत्व का अनुभव किया जाय तो वे नवतत्त्व भूतार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव को लेकर अनुभवन करने पर ये अभूतार्थ हैं। क्योंकि भूतार्थनय से इन नौ तत्त्वों में एक जीव ही प्रकाशमान है; जीव के स्वरूप में ये नहीं हैं। तथा अन्तर्दृष्टि से देखने पर ज्ञायकभाव जीव है और जीव के विकार का कारण अजीव है । पुण्य-पाप आदि अकेले जीव के विकार नहीं हैं, किन्तु अजीव के विकार से जीव के विकार के कारण हैं । अतः जीव के स्वभाव को अलग करके स्व और पर के निमित्त से होनेवाली एक द्रव्यपर्यायरूप से अनुभवन करने पर तो भूतार्थ हैं, किन्तु सदा अस्खलित एक जीवद्रव्य के स्वभाव का अनुभवन करने पर असत्यार्थ हैं ।
सारांश यह है कि जब तक उक्त रूप से जीवतत्त्व का भान नहीं होता, तब तक व्यवहार दृष्टि से जीव और पुद्गल की बन्धपर्यायरूप दृष्टि से ये नवतत्त्व पृथक्-पृथक् दीखते हैं। जब शुद्धनय से जीवतत्त्व और पुद्गल-तत्त्व का स्वरूप पृथक्-पृथक् अनुभव में आता है, तब ये कुछ भी वस्तु नहीं दीखते । निमित्त-नैमित्तिकभाव ये थे । जब निमित्त नैमित्तिकभाव मिट गया, तब जीव और पुद्गल के पृथक्-पृथक् होने से दूसरा कोई पदार्थ
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