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नयचक्र
निमित्त होता है; शेष चार द्रव्य तो इन्हीं दो द्रव्यों की गति आदि में सहायक मात्र होते हैं। अतः यह संसार मुख्यरूप से दो ही द्रव्यों के मेल का परिणाम है। इसलिए यहाँ इन्हीं के सम्बन्ध में विशेष कथन किया जाता
है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने 'प्रवचनसार' में जीव का स्वरूप इस प्रकार कहा है
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठ संठाणं ॥१७२॥ जीव में न रस है, न रूप है, न गन्ध है, न स्पर्श है, न वह शब्दपर्याय रूप है। इसी से इन्द्रियों के द्वारा उसका ग्रहण (ज्ञान) नहीं होता। उसका गुण चेतना है तथा उसका कोई आकार भी नहीं है।
इसमें जीव द्रव्य को अन्य सब द्रव्यों से भिन्न स्वतन्त्र द्रव्य बतलाया है। चूँकि इन्द्रियाँ उसी वस्तु को जानती-देखती हैं, जिनमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श होते हैं या जो शब्दरूप होती हैं। जीव में इनमें से कोई भी नहीं है, अतः वह इन्द्रियों से अगम्य है तथा पुद्गल से भिन्न है; क्योंकि रूप, रस वगैरह पुद्गल के ही विशेष गुण हैं। जीवद्रव्य का विशेष गुण तो एकमात्र चेतना है। इसी से वह अन्य चार द्रव्यों से भी भिन्न है। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य में भी न रूप है, न रस है, न गन्ध है, न स्पर्श है। इसी से वे भी पुद्गल से भिन्न द्रव्य हैं; किन्तु वे सब अचेतन हैं, अतः जीव उनसे भी भिन्न है।
इस तरह चैतन्य गुणवाला जीवद्रव्य संसारी और मुक्त दशा के कारण दो रूप है। उसकी प्रारम्भिक अवस्था संसारी है और उससे छूटने पर वही जीव मुक्त कहाता है। जितने भी मुक्त जीव हैं, वे सब पहले संसारी थे। संसार दशा से छूटने पर ही मुक्त हुए हैं। यद्यपि जैसे संसार अनादि है, वैसे मोक्ष भी अनादि है। किन्तु ऐसा कोई मुक्त जीव नहीं है जो संसार अवस्था में न रहकर अनादिमुक्त हो।
अतः जीवद्रव्य को समझने के लिए उसकी दोनों अवस्थाओं का जानना आवश्यक है। अतः उसी का कथन किया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'पंचास्तिकाय' में संसारी जीव का स्वरूप इस प्रकार कहा है
जीवो इति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता। भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ॥२७॥
आचार्य अमृतचन्द्र ने निश्चयनय और व्यवहारनय से इसका व्याख्यान इस प्रकार किया है--
आत्मा निश्चयनय से भावप्राणों को और व्यवहारनय से द्रव्यप्राणों को धारण करता है, इसलिए जीव है। (संसारी जीव दोनों प्रकार के प्राणों को सदाकाल धारण करता है, किन्तु मुक्त जीव के केवल भावप्राण ही होते हैं।) निश्चय से जीव चित्स्वरूप है और व्यवहार से चैतन्य शक्ति से युक्त है, अतः चेतयिता है। निश्चय से अभिन्न और व्यवहार से भिन्न ज्ञानदर्शनरूप उपयोग से विशिष्ट है। निश्चय से भावकों के और व्यवहार से द्रव्यकर्मों के आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करने में वह स्वयं समर्थ है, इसलिए प्रभु है। निश्चय से पौद्गलिक कर्म के निमित्त से होनेवाले आत्मपरिणामों का और व्यवहार से आत्मपरिणामों के निमित्त से होनेवाले पौद्गलिक कर्मों का कर्ता होने से कर्ता है। निश्चय से शुभ और अशुभ कर्म के निमित्त से होनेवाले सुख-दुःख रूप परिणामों का और व्यवहार से शुभाशुभ कर्मों से प्राप्त इष्ट-अनिष्ट विषयों का भोक्ता होने से भोक्ता है। यद्यपि निश्चय से जीव लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है, फिर भी विशिष्ट अवगाहरूप परिणाम की शक्तिवाला होने से नाम कर्म से रचित छोटे या बड़े शरीर में रहने से व्यवहार से शरीर के बराबर है। कर्मों के साथ एकत्व परिणाम के कारण व्यवहार से जीव यद्यपि मूर्तिक है, तथापि निश्चय से अरूपी स्वभाववाला होने से अमूर्त है। निश्चय से संसारी जीव निमित्तभूत पुद्गल कर्मों के अनुरूप नैमित्तिक आत्मपरिणामों के (भाव-कर्मों के साथ और व्यवहार से निमित्तभूत आत्मपरिणामों के अनुरूप नैमित्तिक पुद्गल कर्मों के (द्रव्य कर्मों के साथ संयुक्त होने से कर्मसंयुक्त है।
यह संसारी जीव का सोपाधि (परसापेक्ष) और निरुपाधि स्वरूप है। संसारी जीव अनादिकाल से कर्मबद्ध है। इस लोक में कर्मरूप होने के योग्य पौद्गलिक कर्मवर्गणा सर्वत्र
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