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________________ २४८ परिशिष्ट कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु सदाभासोऽवसीयताम् ।।७४॥ ऋजुसूत्र क्षणध्वंसि वस्तु सत् सूत्रयेद् ऋजु । प्राधान्येन गुणीभावाद् द्रव्यस्यानर्पणात् सतः ॥७५।। और वह व्यवहारनय परसंग्रहनयसे उत्तरवर्ती तथा ऋजुसूत्रनयसे पहले अनेक प्रकारका है । जैसे जो सत् है वह द्रव्य और पर्यायके भेदसे दो प्रकारका है। परसंग्रहनय सत् रूपसे सबका ग्रहण करता है। व्यवहारनय उसका विभाग करता है जो सत् है वह द्रव्य और पर्यायरूप है। इसी तरह अपरसंग्रह द्रव्यरूपसे सब द्रव्योंको ग्रहण करता है और पर्यायरूपसे सब पर्यायोंको ग्रहण करता है। व्यवहारनय उसका विभाग करता है कि द्रव्य जीवादिके भेदसे छह प्रकारका है और पर्याय क्रमभावी और सहभावीके भेदसे दो प्रकारकी हैं। फिर संग्रहनय सब जीवादिक द्रव्योंका •जीव,पुद्गल,धर्म, अधर्म, आकाश और कालके रूपमें संग्रह करता है तथा क्रमभावी पर्यायोंका क्रमभावी पर्यायरूपसे और सहभावी पर्यायोंका सहभावी पर्यायरूपसे संग्रह करता है। व्यवहारनय उन सबका विभाग करता है-जो जीव है वह मुक्त और संसारीके भेदसे दो प्रकारका है। पुद्गलद्रव्य अणु और स्कन्धके भेदसे दो प्रकारका है। धर्मद्रव्य जीवको गतिमें निमित्त और पुद्गलकी गतिमें निमित्त है। अधर्म द्रव्य भी जीवकी स्थितिमें निमित्त और पुद्गलकी स्थितिमें निमित्त है। अतः पर्यायकी अपेक्षा ये दोनों भी अनेकरूप हैं, किन्तु द्रव्यको अपेक्षा एक है। आकाशद्रव्यके लोकाकाश और अलोकाकाशकी अपेक्षा दो भेद है। कालद्रव्य मुख्य और व्यावहारिकको अपेक्षा दो प्रकारका है। क्रमभावी पर्याय क्रियारूप और अक्रियारूप होती है। सहभावी पर्याय गुणरूप तथा सदशपरिणामरूप होती है। इस प्रकार अपरसंग्रह और व्यवहारनयका विस्तार ऋजुसूत्रनयसे पहले तक और परसंग्रहके बादसे जानना चाहिए। अर्थात् परसंग्रहके पश्चात् और ऋजुसूत्रनयसे पहले तक अपरसंग्रह और व्यवहारनयका विस्तार है। आशय यह है कि परसंग्रहके पश्चात् यदि अभिप्राय संग्रहका है तो वह अपर संग्रहनयका विषय है और यदि भेदका अभिप्राय है तो वह व्यवहारनयका विषय है । व्यवहाराभासका स्वरूप कहते हैं कल्पनाके द्वारा आरोपित अर्थात् कल्पित द्रव्य और पर्यायोंके विभागको ग्रहण करनेवाले नयको व्यवहारामास जानना चाहिए क्योंकि वह प्रमाणसे बाधित है। द्रव्य,पर्यायका भेद काल्पनिक नहीं है, वास्तविक है। जो नय उन्हें कल्पित मानता है वह व्यवहाराभास है। अब ऋजुसूत्रनयको कहते हैं ऋजुसूत्रनय प्रधानरूपसे क्षण-क्षणमें ध्वंस होनेवाली पर्यायको वस्तुरूपसे विषय करता है। और विद्यमान होते हुए भी विवक्षा नहीं होनेसे दम्यकी गौणता है। ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमान क्षणवर्ती पर्यायको ही वस्तुरूपसे विषय करता है,क्योंकि भूतपर्यायें तो नष्ट हो चुकी है और भविष्य पर्याय अभी उत्पन्न ही नहीं हुई है। अतः उनसे व्यवहार नहीं चल सकता। यह इस नयकी दृष्टि है। यद्यपि यह नय द्रव्यका निरास नहीं करता है, किन्तु उसकी ओरसे इसकी दृष्टि उदासीन है। इसीसे इस नयको पर्यायाथिक नयका भेद माना जाता है। इसकी दृष्टिमें सभी पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। जबकि द्रव्यार्थिक नयको दृष्टिमें सभी पदार्थ सर्वदा उत्पत्ति और विनाशसे रहित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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