________________
नयविवरणम्
२४७
द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रेति चापरः । पर्यायत्वं च निःशेषपर्यायव्यापि संग्रहः ॥६९।। तथैवावान्तरान् भेदान् संगृह्येकत्वतो बहुः । वर्ततेऽयं नयः सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृतेः ।।७।। स्वव्यक्त्यात्मकतैकान्तस्तदाभासोऽप्यनेकधा । प्रतीतिबाधितो बोध्यो निःशेषोऽप्यनया दिशा ॥७१॥ संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकः।। योऽवहारो विभागः स्याद् व्यवहारो नयः स्मृतः ॥७२॥ स चानेकप्रकारः स्यादुत्तरः परसंग्रहात् । यत्सत्तद्र्व्यपर्यायाविति प्राग्ऋजुसूत्रतः ।।७३॥
हो सकती । क्योंकि अद्वैतको सिद्धिके लिए कोई प्रमाण मानना ही होगा, और प्रमाणके माननेपर प्रमाण और उसका विषय प्रमेय अद्वैत दो हो जायेंगे। इसका कथन अष्टसहस्रीके दूसरे अध्यायमें किया गया है । वहाँसे देख लेना चाहिए।
आगे अपरसंग्रहनयका स्वरूप कहते हैं
अपर संग्रहनय सम्पूर्ण द्रव्योंमें व्यापी द्रव्यत्वको और सम्पूर्ण पर्यायों में व्यापी पर्यायत्वको विषय करता है। इसी प्रकार बहुतसे अवान्तर भेदोंका एकपनेसे संग्रह करके यह नय प्रवृत्ति करता है। अपने प्रतिपक्षका निराकरण नहीं करनेसे यह नय सम्यक् है ।
पर संग्रहनय तो केवल समस्त पदार्थव्यापी सत्तासामान्यको विषय करता है। और उसके भेद-प्रभेदोंको एकत्वरूपसे संग्रह करके अपर संग्रहनय जानता है। जैसे. सम्पूर्ण द्रव्योंमें व्यापी द्रव्यत्व सम्पूर्ण और पर्यायोंमें व्यापी पर्यायत्व अपर संग्रहनयका विषय है।
आगे संग्रहाभासका स्वरूप कहते हैं
अपनी व्यक्ति और जातिके सर्वथा एकात्मकपनेका एकान्त अपरसंग्रहामास है,वह अनेक प्रकारका है तथा प्रतीतिसे बाधित है। इसी प्रकार समस्त संग्रहाभासोंको जान लेना चाहिए।
द्रव्यत्व द्रव्यात्मक ही है, द्रव्यत्वसे भिन्न द्रव्योंका अभाव है। ऐसा मानना अपरसंग्रहाभास है। तथा पर्यायत्व पर्यायात्मक ही है, पर्यायत्वसे भिन्न पर्यायोंका अभाव है , यह भी अपरसंग्रहाभास है। इसी तरह जीवत्व जीवात्मक ही है, पुद्गलत्व पुद्गलात्मक ही है, धर्मत्व धर्मात्मक ही है, अधर्मत्व अधर्मात्मक ही है, आकाशत्व आकाशात्मक ही है, कालत्व कालात्मक ही है-ये सब अपरसंग्रहाभास हैं । क्योंकि जीवत्व
मान्य अपनी व्यक्तियोंसे कथंचित भिन्न प्रतीत होता है। यदि सामान्यका अपने विशेषोंसे सर्वथा अभेद माना जायेगा तो दोनोंमें से एकका भी अभाव होनेपर सबका अभाव हो जायेगा। सारांश यह है कि संग्रहनय सामान्यग्राही है, मगर वह विशेषोंका निराकरण नहीं करता। वैसा करनेसे संग्रहाभासत्वका प्रसंग आता है। क्योंकि व्यक्तियोंसे सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न सामान्यकी प्रतीति नहीं होतो। किन्तु कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न की ही प्रतीति होती है। अतः अपर सामान्य या परसामान्य व्यक्तिरूप ही हैं। इस प्रकारके सभी अभिप्रायोंको अपर संग्रहाभास जानना चाहिए, क्योंकि वे प्रमाणसे बाधित हैं।
अब व्यवहारनयका प्ररूपण करते हैं
संग्रहनयके द्वारा गृहीत पदार्थोंका विधिपूर्वक जो विभाग होता है उसे व्यवहारनय कहते हैं । १. 'संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ।'-सर्वार्थसिद्धि १।३३ । विधिपूर्वकम् मु० २ । २. नयः स नः मु०२।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org