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________________ नयविवरणम् भिन्ने तु सुखजीवत्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। सोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमाभास एव नः ॥५०॥ शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रेति यो नयः। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारजः ॥५१॥ सद्व्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात । इत्येवमवगन्तव्यस्तद्भदोक्तिस्तु दुर्नयः ॥५२॥ यस्तु पर्यायवद् द्रव्यं गुणवद्वेति निर्णयः । व्यवहारनयाज्जातः सोऽशुद्धद्रव्यनैगमः ॥५३॥ तदभेदेकान्तवादस्त तदाभासोऽनुमन्यते। तथोक्तेर्बहिरन्तश्च प्रत्यक्षादिविरोधतः ॥५४॥ उक्त दृष्टान्तमें सुख अर्थपर्याय है और जीवन व्यंजनपर्याय है, 'सुख' विशेषण है और 'जीवन' विशेष्य है। विशेषण गौण होता है और विशेष्य प्रधान होता है । अर्थ व्यंजन पर्याय नैगमाभासका स्वरूप कहते हैंजो सुख और जीवनको सर्वथा भिन्न मानता है वह हमारा अर्थव्यंजन पर्याय नैगमाभास है। पर्याय नैगमके तीन भेदोंका स्वरूप बतलाकर आगे द्रव्यनैगमके भेदोंका स्वरूप उदाहरणपूर्वक कहते हैं जो नय शुद्ध द्रव्य और अशुद्ध व्यको गौण मुख्य रूपसे जानता है वह तो वहाँ संग्रह और व्यवहारजन्य नैगमनय ही है। समस्त वस्तु सत् द्रव्य हैं, क्योंकि सभी वस्तुओं में सत्त्व और व्यस्वके अन्दयका निश्चय है। इस प्रकारसे जाननेवाला शुद्धद्रव्यनैगम है और सत्त्व तथा द्रष्यत्वके सर्वथा भेदको कथन करना दुनय है। संग्रहनयका विषय शुद्धद्रव्य है और व्यवहारनयका विषय अशुद्धद्रव्य है । नैगमनय धर्म और धर्मीमेंसे एकको गौण एकको मुख्य करके विषय करता है, यह पहले लिख आये हैं। समस्त वस्तु सद्रव्य रूप हैं। यह शुद्ध नैगमनयका उदाहरण है। इस उदाहरणमें द्रव्यपना मुख्य है, क्योंकि वह विशेष्य है और उसका विशेषण सत्त्व गौण है। सत्त्व और द्रव्यत्वको सर्वथा भिन्न मानना जैसा कि वैशेषिक दर्शन मानता है, शुद्धद्रव्य नैगमाभास है। आगे अशुद्ध द्रव्य नैगमका उदाहरण देते हैं जो नय 'पर्यायवाला द्रव्य' है या 'गणवान् द्रव्य' है ऐसा निर्णय करता है वह व्यवहारनयसे उत्पन्न हुआ अशुद्धद्रव्यनैगम है। संग्रहनयके विषयमें भेद-प्रभेद करनेवाले नयको व्यवहार नय कहते हैं। अतः द्रव्य पर्यायवाला है या गुणवाला है, यह उदाहरण अशुद्धद्रव्यनैगमनयका है। चूंकि भेदग्राही होनेसे व्यवहारनयका विषय अशुद्ध द्रव्य है,अतः नैगमके इस भेदको व्यवहार जन्य बतलाया है। अशुद्ध द्रव्य नैगमाभासका स्वरूप पर्याय और द्रव्यमें या गुण और दय्यमें सर्वथा भेद मानना असुद्धद्रव्य जैगमाभास माना जाता है ; क्योकि बाह्य और अन्तरंग पदार्थोंमें उक्त प्रकारसे भेदका कथन करनेमें प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरोध आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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