SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयचक्र स्वभावपर्याय छहों द्रव्यों में साधारण है अर्थात् सभी द्रव्यों में होती है। उसी को अर्थपर्याय कहते हैं, वह वचन और मन के अगोचर है, अति सूक्ष्म है, आगम प्रमाण से स्वीकार करने के योग्य है तथा छह हानि-वृद्धि के भेदों से सहित है। वे छह हानिवृद्धि इस प्रकार हैं-अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि । इसी प्रकार छह हानियाँ भी हैं। 'नियमसार' गाथा १५ की टीका में मलधारीजी ने स्वभावपर्याय के भी दो भेद किये हैं-कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय। सहज शुद्ध निश्चयनय से अनादि, अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव, शुद्ध स्वाभाविक ज्ञान, स्वाभाविक दर्शन, स्वाभाविक चारित्र, स्वाभाविक वीतराग सुखरूप, स्वाभाविक अनन्तचतुष्टय के साथ जो पंचम पारिणामिक भाव की परिणति है, वह कारणशुद्धपर्याय है। और सादि, अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्ययुक्त अनन्तचतुष्टय के साथ जो परमोत्कृष्ट क्षायिक भाव की शुद्ध परिणति है, वह कार्यशुद्धपर्याय है। सार यह है कि आत्मा में सदा काल वर्तमान स्वाभाविक अनन्तचतुष्टययुक्त कारणशुद्धपर्याय में से केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टययुक्त कार्यशुद्धपर्याय प्रकट होती है। व्यंजनपर्याय स्थल होती है, वचनगोचर और चक्षगोचर होती है तथा चिरकाल तक रहती है। यह भी स्वभाव और विभाव के भेद से दो प्रकार की है। जीव की मनुष्य नारकी आदि पर्याय विभावव्यंजनपर्याय है और सिद्धपर्याय स्वभावव्यंजन पर्याय है। पुद्गल की व्यणुक आदि रूप पर्याय विभावव्यंजनपर्याय है। जैसे पर्याय स्वभाव और विभावरूप होती है, वैसे ही गुण भी स्वभाव और विभावरूप होते हैं। जैसे जीव के केवलज्ञान आदि स्वभावगुण हैं और मतिज्ञानादि विभावगुण हैं। शुद्ध परमाणु में जो रूपादि होते हैं वे स्वभावगुण हैं, ट्यणुक आदि स्कन्धों में जो रूपादि हैं वे विभावगुण हैं। ये जीव और पुद्गलद्रव्य के विशेष गुण हैं। अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायवत्व, सर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, निष्क्रियत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुरु-लघुत्व आदि सामान्य गुण हैं। यथायोग्य ये सब द्रव्यों में पाये जाते हैं। धर्मद्रव्य का विशेष गुण गतिहेतुता है, अधर्मद्रव्य का विशेष गुण स्थितिहेतुता, आकाश का विशेष गुण अवगाहहेतुता और कालद्रव्य का विशेष गुण वर्तनाहेतुता है। इन द्रव्यों में जीव और पुद्गल द्रव्यों का परिणमन स्वभावरूप भी होता है और विभावरूप भी होता है। शेष चार द्रव्यों में विभावव्यंजनपर्याय नहीं होती, इसलिए वे मुख्य रूप से अपरिणामी कहे जाते हैं; वैसे स्वाभाविक परिणमन तो उनमें भी होता है। जीवद्रव्य के सिवाय शेष पाँचों द्रव्य अजीव हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण जिसमें पाये जाएँ उसे मूर्तिक कहते हैं। इसी से पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है, जीवद्रव्य अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से मूर्त होने पर भी शुद्ध निश्चयनय से अमूर्त हैं। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य अमूर्तिक ही हैं। इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्याय की चर्चा कुन्दकुन्द स्वामी आदि आचार्यों ने की है। उसी को आधार बनाकर प्रकृत ग्रन्थ में चर्चा की गयी है। २. पंचास्तिकाय छह द्रव्यों में से काल द्रव्य को पृथक् कर देने से शेष पाँचों को पंचास्तिकाय कहते हैं। और उनमें काल को सम्मिलित कर देने से छह द्रव्य कहे जाते हैं, काल द्रव्य है; किन्तु अस्तिकाय नहीं है। अस्तिकाय शब्द अस्ति और काय दो शब्दों के मेल से बना है। 'अस्ति' का अर्थ है-'सत्' अर्थात् ये सभी द्रव्य सत् हैं। तथा काय का अर्थ है-शरीर। जैसे शरीर बहुत से पुद्गल परमाणुओं का समूह होता है, वैसे ही ये द्रव्य भी बहुत से प्रदेशवाले हैं, अतः इन्हें 'काय' शब्द से कहा है। यही बात 'द्रव्यसंग्रह' में कही है संति जदो तेणेदे अत्थित्ति भणंति जिणवरा जम्हा। काया इव बहुदेसा तम्हा काया य अस्थिकाया य ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy