________________
२५
प्रस्तावना
उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य पर्याय के होते हैं और पर्याय द्रव्य की होती हैं, अतः ये सब एक ही द्रव्य हैं - ऐसा समझना चाहिए ।
शंका- जिस क्षण में वस्तु का उत्पाद होता है, उस क्षण में उत्पाद ही होता है; विनाश और धौव्य नहीं । जिस क्षण में वस्तु ध्रुव होती है, उस क्षण में विनाश और उत्पाद नहीं। जिस क्षण में वस्तु का व्यय होता है, उस क्षण में व्यय ही है; उत्पाद और धौव्य नहीं । इस प्रकार इन तीनों में क्षण-भेद अवश्य है ।
समाधान - यह सम्भव होता, यदि द्रव्य का ही उत्पाद, द्रव्य का ही विनाश और द्रव्य का ही धौव्य माना जाता । किन्तु ऐसा नहीं माना गया है। पर्यायों के ही उत्पाद आदि होते हैं, तब क्षण-भेद का प्रश्न ही नहीं रहता । जैसे जिस क्षण में घट का उत्पाद होता है, उसी क्षण मिट्टी की पिण्ड पर्याय नष्ट होती है और मिट्टीपना ध्रुव रहता है । इसी तरह सर्वत्र जो उत्तर पर्याय का जन्म-क्षण है, वही पूर्व पर्याय का नाश क्षण है और वही दोनों अवस्था में रहनेवाले द्रव्यत्व का स्थिति-क्षण है । इस तरह द्रव्य की अन्य पर्याय उत्पन्न होती है, कोई अन्य पर्याय नष्ट होती है; किन्तु द्रव्य न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है ।
जैसे एक जीव मनुष्य पर्याय को छोड़कर देव पर्याय में उत्पन्न होता है और फिर देव पर्याय को भी छोड़कर अन्य पर्याय में उत्पन्न होता है, तो क्या वह जीवपने को छोड़ देता है? यदि नहीं छोड़ता, तो वह वही रहा । किन्तु पर्याय तो अपने ही काल में रहती है। उससे अन्य काल में उसका अभाव हो जाता है । मनुष्य पर्याय देव पर्याय में नहीं है और देव पर्याय मनुष्य पर्याय में नहीं है अर्थात् भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए उनका कर्ता जीव द्रव्य भी पर्याय की अपेक्षा से अन्य है । सर्वथा एक ही नहीं है ।
इस तरह वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक है। उस वस्तु के सामान्य और विशेष स्वरूपों को जानने के लिए दो आँखें हैं - एक द्रव्यार्थिक और दूसरी पर्यायार्थिक । उनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखते हैं, तो नारक आदि पर्यायों में रहनेवाले एक जीवत्व सामान्य को देखनेवाले और विशेषों को न देखनेवालों को 'वह सब जीव द्रव्य है' ऐसा भासित होता है, और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके केवल खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखते हैं, तो जीव द्रव्य में रहनेवाले नारक आदि पर्याय स्वरूप विशेषों को देखनेवाले और सामान्य को न देखनेवाले जीवों को वह जीवद्रव्य अन्य- अन्य भासित होता है। क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन उन विशेषों से अनन्य (अभिन्न) है। और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखों को एक साथ खोलकर उनके द्वारा देखा जाता है, तो नारक आदि पर्यायों में रहनेवाला जीवसामान्य और जीवसामान्य में रहनेवाले नारक आदि पर्यायरूप विशेष एक ही साथ दिखाई देते हैं ।
इस तरह पदार्थ द्रव्यस्वरूप है और द्रव्य गुणों का समुदाय रूप है; तथा पर्याय द्रव्यरूप भी और गुण-रूप भी है। आचार्य अमृतचन्द्र ने 'प्रवचनसार' गाथा ६३ की टीका में कहा है-अनेक द्रव्यों में एकता का बोध करानेवाली पर्याय द्रव्यपर्याय है। उसके दो प्रकार हैं- समान जातीय और असमान जातीय । अनेक पुद्गल परमाणुओं के मेल से बने घट-पट आदि समान जातीय द्रव्यपर्याय है । और जीव तथा पुद्गल के मेल से बनी देव, मनुष्य आदि पर्याय असमान जातीय द्रव्य पर्याय है। गुण पर्याय के भी दो भेद हैं- स्वभावगुण पर्याय और विभावगुणपर्याय । प्रत्येक द्रव्य में अपने-अपने अगुरु लघु गुण द्वारा प्रति समय होनेवाली षट्स्थान पतित हानिवृद्धि रूप अनेकता की अनुभूति स्वभावपर्याय है। पुद्गल के रूपादि और जीव के ज्ञानादि गुणों में स्व और पर कारणों से पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य ( हीनाधिकता ) से जो अनेक अवस्थाएँ होती हैं, वह विभावगुणपर्याय है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने 'नियमसार' गाथा १४ में पर्याय के दो भेद किये हैं- स्व-पर सापेक्ष और निरपेक्ष । इसकी टीका में पद्मप्रभ मलधारी ने इसे शुद्ध और अशुद्ध पर्याय की सूचना कहा है अर्थात् निरपेक्ष पर्याय शुद्ध पर्याय है। उसे उन्होंने स्वभावपर्याय कहा है T
'अत्र स्वभावपर्यायः षड्द्रव्यसाधारणः अर्थपर्यायः अवाङ्मनसगोचरः अतिसूक्ष्मः आगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्हानिवृद्धिविकल्पयुक्तः । अनन्तभागवृद्धिः, असंख्यात भागवृद्धिः, संख्यात भागवृद्धिः, संख्यातगुणवृद्धिः, , असंख्यातगुणवृद्धिः, अनन्तगुणवृद्धिः तथा हानिश्च नीयते । अशुद्धपर्यायो नरनारकादिव्यजंनपर्याय - ।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org