________________
परिशिष्ट २
श्रीमविद्यानन्दस्वामिविरचितम् तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकान्तर्गतं
नयविवरणम्
सूत्रे नामादिनिक्षिप्ततत्त्वार्थाधिगमः स्थितः । कार्त्स्यतो देशती वापि स प्रमाणनयैरिह ॥ १ ॥ प्रमाणं च नयाश्चेति द्वन्द्वे पूर्वनिपातनम् । कृतं प्रमाणशब्दस्याभ्यर्हितत्वेन बह्वचः ॥२॥ प्रमाणं सकलादेशि नयादभ्यर्हितं मतम् । विकलादेशिनस्तस्य वाचकोऽपि तथोच्यते ॥ ३ ॥
'तत्त्वार्थ सूत्र में 'नाम आदि निक्षेपोंके द्वारा निक्षिप्त जीवादि सात तत्वोंका ज्ञान दो प्रकारसे होता है -- एकदेश से और सर्वदेशसे । प्रमाणके द्वारा सर्वदेश से ज्ञान होता है और नयोंके द्वारा एकदेशसे ज्ञान होता है।
'तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में तत्त्वार्थके श्रद्धाको सम्यग्दर्शन बतलाकर सात तत्त्वोंका विवेचन नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपोंके द्वारा किया है। उसके बाद उनको जाननेके दो उपाय बतलाये हैं - एक प्रमाण और दूसरा नय । प्रमाण पूर्णवस्तुको जानता है और नय वस्तुके एकदेशको जानता है । प्रमाण और नयोंका द्वन्द्व समास करके उसमें प्रमाण शब्दको पहले अच्वाला होनेपर भी प्रमाण नयकी अपेक्षा पूज्य 1
स्थान दिया है, क्योंकि बहु
'प्रमाणनयैरधिगमः' यह तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायका छठा सूत्र है । इसीके व्याख्यानमें विद्यानन्दस्वामीने यह विवेचन किया है । उक्त सूत्रमें प्रमाण शब्दको पहले स्थान दिया है और नय शब्दको पीछे स्थान दिया है । किन्तु व्याकरणशास्त्र के अनुसार जिसमें थोड़े अक्षर हों, उसको पहले स्थान दिया जाता है, अतः नयको पहले स्थान देना चाहिए था । किन्तु नयसे प्रमाण पूज्य है और जो पूज्य होता है उसे पूर्वस्थान दिया जाता है, अतः प्रमाणको पहले स्थान उक्त सूत्र में दिया गया है ।
नसे प्रमाण क्यों पूज्य है, यह बतलाते हैं—
प्रमाण सकलादेशी है, अतः वह विकलादेशी नयसे पूज्य माना गया है। जब प्रमाणपूज्य है तो उसका वाचक प्रमाण शब्द मी पूज्य कहा जाता है ।
समस्त वस्तुका ग्रहण और कथन करनेवालेको सकलादेशी कहते हैं और वस्तुके एकदेशका ग्रहण या कथन करनेवालेको विकलादेशी कहते हैं । प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी है । अतः नय प्रमाण पूज्य है ।
Jain Education International
शंका —— जो सकलादेशी हो वह पूज्य है और जो विकलादेशी हो वह पूज्य नहीं है ऐसा क्या कोई नियम है जिसके कारण आप नयसे प्रमाणको पूज्य बतलाते हैं ?
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org