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परिशिष्ट
पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयो द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो, व्यवहारो भेदविषयः । तत्र निश्चयो द्विविधः शुद्ध निश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च । तत्र निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयकः शुद्धनिश्चयो यथाकेवलज्ञानादयो जीव इति । सोपाधिक गुणगुण्यभेदविषयोऽशुद्धनिश्चयो यथा-मतिज्ञानादयो जीव इति । व्यवहारो द्विविधः सद्भतव्यवहारोऽसद्भूतव्यवहारश्च । तत्रैक वस्तुविषयः सद्भतव्यवहारः मिन्नवस्तुविषयोऽसद्भुतव्यवहारः। तत्र सद्भुतव्यवहारोऽपि द्विविध उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र सोपाधिगुणगुणिभेदविषय उपचरितसद्भुतव्यवहारो यथा जीवस्य मविज्ञानादयो गुणाः । निरुपाधि गुणगुणि भेदविषयोऽनुपचरितसद्भतव्यवहारो यथा-जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । असद्भतव्यवहारो द्विविध उपचरितानुप भेदात् । तत्र संश्लेषरहितवस्तुसम्बन्धविषय उपचरितासद्भतव्यवहारो यथा देवदत्तस्य धनमिति । संश्लेषसहितवस्तु सम्बन्धविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति ।
इति सुखबोधार्थमालापपद्धतिः श्रीदेवसेनपण्डितविरचिता
परिसमाप्ता।
फिर भी अध्यात्म भाषाके द्वारा नयोंका कथन करते हैं___ मल नय दो है-निश्चय और व्यवहार । उनमेंसे निश्चयनय अभेदको विषय करता है और व्यवहारनय भेदको विषय करता है। उनमेंसे निश्चयनयके दो भेद हैं-शुद्ध निश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय । उनमेंसे जो उपाधि रहित गुण और गुणीमें अभेदको विषय करता है वह शुद्धनिश्चयनय है जैसे केवलज्ञान आदि जीव है। उपाधि सहित गुण और गुणीमें अभेदको विषय करनेवाला अशुद्धनिश्चयनय है, जैसे मतिज्ञान आदि जीव है।
व्यवहारनयके दो भेद हैं-सद्भूतव्यवहारनय और असद्भूतव्यवहारनय । उनमेंसे एक ही वस्तुमें भेदव्यवहार करनेवाला सद्भतव्यवहारनय है और भिन्न वस्तुओंमें अभेदका व्यवहार करनेवाला असद्भूतव्यवहारनय है। उनमेंसे सद्भूतव्यवहारके भी दो भेद हैं-उपचरित सद्भूतव्यवहार और अनुपचरित सद्भूतव्यवहार । उपाधि सहित गुण और गुणी में भेदव्यवहार करनेवाला उपचरितसद्भूतव्यवहारनय है ; जैसे जीव के मतिज्ञानादिगुण हैं । निरुपाधि गुण-गुणीमें भेदको विषय करनेवाला अनुपचरितसद्भूतव्यवहार नय है। जैसे जीवके केवलज्ञानादि गुण हैं। असद्भूतव्यवहार दो प्रकारका है-उपचरित असद्भूतव्यवहार और अनुपचरित असद्भूतव्यवहार । मेलरहित वस्तुओंमें सम्बन्धको विषय करनेवाला उपचरित असद्भूतव्यवहारनय है; जैसे देवदत्तका धन । और मेलसहित वस्तुओंमें सम्बन्धको विषय करनेवाला अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय है; जैसे जीवका शरीर ।
इस प्रकार सुखपूर्वक बोध कराने के लिए देवसेन पण्डित रचित
आलापपद्धति समाप्त हुई।
१. धिकविप-श्रा. ज.। २. धिकविष-आज०। ३. -क वस्तुभेदवि-क० ख० ग० । ४. स्तुसम्बन्धवि-- क० ख० ग० । ५-६. -णिनोर्भ-क०ख० ग . ।
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