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________________ २२४ परिशिष्ट परममावग्राहकेण कालपुद्गलाणूनामेकप्रदेशस्वभावत्वम् । भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषामखण्डत्वादेकप्रदेशत्वम् । भेदकल्पनासापेक्षण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । पुद्गलाणोरुपचारतो नानाप्रदेशत्वं न च कालाणोः स्निग्धरूक्षत्वाभावात् । अणोरमूर्तत्वाभावे पुद्गलस्यैकविंशतितमो मावो न स्यात् । परोक्षप्रमाणापेक्षयाऽसद्भूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्व पुद्गलस्य । शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकेन विभावस्वमावत्वम् । शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभावः। अशुद्ध द्रव्याथिकेनाशुद्धस्वभावः । असद्भूतव्यवहारेणोपचरितस्वभावः। 'द्रव्याणां तु यथारूपं तल्लोकेऽपि व्यवस्थितम् । तथा ज्ञानेन संज्ञातं नयोऽपि हि तथाविधः ॥' इति नययोजनिका । परमभावग्राही नयकी अपेक्षा कालाणु तथा पुद्गलका एक अणु एकप्रदेशी हैं। भेदकल्पनाकी अपेक्षा न करने पर शेष धर्म, अधर्म, आकाश और जीवद्रव्य भी अखण्ड होनेसे एकप्रदेशी है किन्तु भेदकल्पनाकी अपेक्षासे चारों द्रव्य अनेक प्रदेशी हैं। पुद्गलका परमाणु उपचारसे अनेक प्रदेशी है क्योंकि वह अन्य परमाणुओंके साथ बँधने पर बहुप्रदेशी स्कन्धरूप हो जाता है। किन्तु कालाणुमें स्निग्ध रूक्ष गुण नहीं है अतः वह अन्य कालाणुओंके साथ बन्धको प्राप्त नहीं होता इसलिए कालाणु उपचारसे भी अनेक प्रदेशी नहीं है । यदि पुद्गलका परमाणु उपचारसे भी अमूर्तिक नहीं है तो पुद्गलमें इक्कीसवाँ भाव अमूर्तत्व नहीं रहेगा ( और पहले कह आये हैं कि पुद्गलमें इक्कीस स्वभाव होते हैं ) तो उसका समाधान यह है कि पुद्गलका परमाणु परोक्षं है अर्थात् सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका विषय नहीं है इसलिए उपचरित असद्भुत व्यवहारनयसे उसमें अमूर्तत्वका आरोप करके पुद्गलके इक्कीस भाव कहे हैं। विशेषार्थ-पहले पुद्गलके इक्कीस भाव बतलाये हैं उनमें अमूर्तत्व भी है और यहां कहा है कि पुद्गलका परमाणु उपचारसे भी अमूर्तिक नहीं है । इसके साथ ही ऐसी आशंका भी होना स्वाभाविक है कि जीव और पुद्गलका परस्परमें बन्ध होनेसे जैसे आत्मामें मूर्तताका उपचार किया जाता है वैसे पुद्गलमें अमूर्तताका उपचार क्यों नहीं किया जाता । इसका समाधान यह है कि जहां पुद्गलका मूर्तस्वभाव अभिभूत नहीं है किन्तु उद्भूत है वहाँ अमूर्तता स्वभाव संभव नहीं है क्योंकि अमूर्तता पुद्गलसे भिन्न द्रव्योंका विशेष धर्म है । आत्मासे बद्ध कर्मोंमें अमूर्तता अभिभूत नहीं है बल्कि कर्मोंके कारण आत्माकी अमूर्तता कथंचित् अभिभूत है इसीलिए आत्मामें तो मूर्तताका उपचार किया जाता है किन्तु कर्मोंमें अमूर्तताका उपचार नहीं किया जाता। इस समाधानपरसे पुनः यह शंका होती है कि यदि उपचारसे भी पुद्गल अमूर्त स्वभाव नहीं है तो पहले ऐसा क्यों कहा है कि जीव और पुद्गलमें इक्कीस-इक्कीस भाव होते हैं तो उसका समाधान यह है कि पुद्गलका परमाणु परोक्ष है जैसे इन्द्रियोंसे स्कन्धका प्रत्यक्ष होता है वैसा परमाणुका नहीं होता । अत: व्यावहारिक प्रत्यक्षका अविषय होनेसे परमाणुमें अमूर्तत्वका उपचार करके पुद्गल द्रव्यके इक्कीस भाव कहे हैं। शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकनयसे जीव और पुद्गल विभाव स्वभाव हैं । शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे शुद्ध स्वभाव हैं, अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे अशुद्ध स्वभाव हैं । और असद्भूत व्यवहारनयसे उपचरित स्वभाव हैं । द्रव्योंका जैसा स्वरूप है। वही लोकमें भी व्यवस्थित है। वैसा ही ज्ञानसे जाना जाता है । नय भी उसी प्रकार जानता है। इस प्रकार नययोजना हुई। १.-षां धर्माधर्माकाशजीवानां च एकप्रदेशस्वभावत्वं अखण्डत्वाच्च अ० क० ख० ग० । -षां च । भेद ज०। २. धर्माधर्माकाशजीवानाम् । ३. -णो रूक्षत्वात् आ० । ४. अणोमू-क० । अणोरमूर्तभावे ग० । ५. त्वं न पु-क० ख० ग० । ६. तथाविधि क० ख० ग०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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