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________________ आलापपद्धति २२१ स्याप्यन्यत्रोपचारादुपचरितस्वमावः । स द्वधा-कर्मजस्वाभाविकभेदात् । यथा जीवस्य मूर्तत्वमचेतनत्वं, यथा सिद्धात्मनां परज्ञता परदर्शकत्वं च । एवमितरेषां द्रव्याणामुपचारो यथासंमदो ज्ञेयः । इति विशेषस्वभावानां व्युत्पत्तिः । 'दुर्नयैकान्तमारूढा मावा न स्वार्थिका हि ते । स्वार्थिकाश्च विपर्यस्ताः सकलंका नया यत: ॥७॥ तत्कथम् ? तथाहि-सर्वथैकान्तेन सद्पस्य न नियतार्थव्यवस्था संकरादिदोषत्वात् । तथाऽसद - पस्य सकलशून्यताप्रसंगात् । नित्ययस्यैकरूपत्वादेकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । अनित्यपक्षेऽपि निरन्वयत्वादर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । एकस्वरूपस्यैकान्तेन विशेषाभावः सर्वथैकरूपत्वात्, विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावः । "निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि ॥८॥ इति ज्ञेयः । अन्यत्र उपचार करना उपचरित स्वभाव है। वह दो प्रकारका है- एक कर्मजन्य और दूसरा स्वाभाविक । जैसे जीवका मूर्तपना और अचेतनपना कर्मजन्य उपचरित स्वभाव है अर्थात् कर्मबन्धनके निमित्तसे कर्मोके मुर्तत्व और अचेतनत्व स्वभावका उपचार जीवमें किया जाता है। और सिद्धोंको परका ज्ञाता द्रष्टा कहना भाविक उपचरित स्वभाव है (सिद्ध वस्तुतः स्वके ज्ञाता द्रष्टा हैं, क्योंकि तन्मय होकर अपनेको जानते हैं,किन्तु उस तरह परमय होकर परको नहीं जानते,अतः उन्हें परका ज्ञाता द्रष्टा उपचारसे कहा जाता है)। इसी तरह अन्य द्रव्योंका भी यथासंभव उपचार जानना चाहिए। इस प्रकार विशेष स्वभावोंकी व्युत्पत्ति जानना । कहा भी है दुर्नयके विषयभूत एकान्तरूप पदार्थ वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि दुर्नय केवल स्वार्थिक हैं-वे अन्य नयोंकी अपेक्षा न करके केवल अपनी हो पुष्टि करते हैं। और जो स्वार्थिक होनेसे विपरोत होते हैं वे नय सदोष होते हैं। ___इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-यदि वस्तुको सर्वथा एकान्तसे सद्रूप माना जायेगा तो संकर आदि दोषोंके आनेसे नियत अर्थकी व्यवस्था नहीं बनेगो । अर्थात् जब वस्तुको सर्वथा सद्रूप माना जायेगा,तो वस्तु सब रूप होगी और ऐसी स्थिति में जीव पुद्गल आदिके भी परस्परमें एकरूप होनेसे पुद्गल जोवरूप और जीव पुद्गलरूप हो जायेगा; क्योंकि वस्तु सर्वथा सद्रूप है,उसमें असत्पना है ही नहीं। इसी तरह वस्तुको सर्वथा असद्रूप-अभावरूप माननेसे समस्त संसारकी शून्यताका प्रसंग आता है । वस्तुको सर्वथा नित्य माननेसे वह सदा एकरूप रहेगी और सदा एकरूप रहनेसे वह अर्थक्रिया ( कुछ कार्य ) नहीं कर सकेगी तथा अर्थक्रिया न करनेसे वस्तुका अभाव हो जायेगा । वस्तुको सर्वथा अनित्य (क्षणिक ) माननेपर भी दूसरे ही क्षणमें वस्तुका सर्वथा विनाश हो जानेसे वह कोई कार्य नहीं कर सकेगी और कुछ भी कार्य न करनेसे वस्तुका ही अभाव हो जायेगा। वस्तुको सर्वथा एकरूप माननेपर उसमें विशेष धर्मका अभाव हो जायेगा,क्योंकि वह सर्वथा एकरूप है और विशेष धर्मका अभाव होनसे सामान्य वस्तुका भी अभाव हो जायेगा, क्योंकि विना विशेषका सामान्य गधेके सींगकी तरह असत् है और विना सामान्यके विशेष भी गधेके सोंगकी तरह असत् है। अर्थात सामान्यके विना विशेष नहीं होता और विशेषके विना सामान्य नहीं होता। अतः दोनोंका ही अभाव होगा। १. सिद्धानां भु.। २. दुष्टो नयो दुर्नयः तस्यैकान्तम् । ३. भावानां मु०। ४. -का इति क० ख० ग० । ५८ -दोषप्रसङ्गात घ.। संकर-व्यतिकर-विरोध-वैयधिकरण-अनवस्था-संशय-अप्रतिपत्ति-अभाव इति अष्टौ दोषाः । ६. -पि अनित्यरूपत्वाद-मु०। ७. विशेषरहितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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