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________________ २२० परिशिष्ट स्वभावविभावरूपतया याति पयति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः । स्वभावलाभादच्यतत्वादस्तिस्वभावः । परस्वरूपेणाभावान्नास्तिस्वभावः । निजनिजनानापर्यायेषु तदेवेदमिति द्रव्यस्योपलम्भान्नित्यस्वभावः । तस्याप्यनेकपर्याय परिणतत्त्वादनित्यस्वभावः । स्वभावानामेकाधारत्वादेकस्वभावः । एकस्याप्यनेकस्वभावोपलम्भादनेकस्वभावः । गुणगुण्यादिसंज्ञाभेदाद् भेदस्वभावः, संज्ञासंख्यालक्षणप्रयोजनानि । गुणगुण्यायेकस्वभावात् अभेदस्वभावः । भाविकाले परस्वरूपाकारभवनाद् भव्यस्वभावः । कालत्रयेऽपि परस्वरूपाकाराभवनादभव्यस्वभावः । उक्तं च अण्णोणं पविसंता दिता ओग्गासमण्णमण्णस्स । मेलंता वि य णिचं सगसगभावं ण विजहंति ॥६॥ [ पञ्चास्ति०, गा० ७] पारिणामिकभावप्रधानत्वेन परमस्वभावः । इति सामान्यस्वभावानां व्युत्पत्ति: । प्रदेशादिगुणानां व्युत्पत्तिश्चेतनादिविशेषस्वभावानां च व्युत्पत्तिर्निगदिता। धर्मापेक्षया स्वभावा गुणा न भवन्ति । स्वचतुष्टयापेक्षया परस्परं गुणाः स्वभावा भवन्ति । द्रव्याण्यपि भवन्ति । स्वभावादन्यथाभानं विभावः । शुद्धं केवलभावम तस्यापि विपरीतम् । स्वमाव स्वभाव और विभाव रूपसे जो परिणमन करे उसे पर्याय कहते हैं, यह पर्यायकी व्युत्पत्ति है । द्रव्य अपने स्वभावके लाभसे कभी च्युत नहीं होता, सदा अपने स्वभावमें स्थिर रहता है, अतः अस्तिस्वभाव है। कभी भी पर स्वरूप नहीं होता, अतः नास्तिस्वभाव है। अपनी-अपनी नाना पर्यायोंमें 'यह वही है' इस प्रकार द्रव्यको उपलब्धि होती है अर्थात् परिवर्तनशील होते हुए भी द्रव्यकी द्रव्यता कायम रहती है, इसलिए वह नित्य स्वभाव है। किन्तु अनेक पर्यायरूप परिणमनशील होनेसे अनित्य स्वभाव है। नाना स्वभावोंका आधार एक होनेसे एक स्वभाव है और एकके भी अनेक स्वभाव पाये जानेसे अनेक स्वभाव है । गुण-गुणी आदि नामभेद, संख्याभेद, लक्षणभेद तथा प्रयोजनभेद होनेसे भेदस्वभाव है अर्थात् एक ही द्रव्य में गुण, और गणीका भेद पाया जाता है, अतः नामभेद हआ। गणको संख्या अनेक और गुणीकी संख्या एक होनेसे संख्याभेद हुआ। गुणका लक्षण पृथक् है और गुणीका लक्षण है पृथक अतः लक्षणभेद हुआ। गुणका कार्य अलग है और गुणीका अलग है,अतः इन भेदोंके कारण द्रव्यभेद स्वभाव है। किन्तु गुण, गुणी आदि स्वभावसे एक ही है,उनमें वस्तुतः भेद नहीं है ,अतः द्रव्य अभेद स्वभाव है। भाविकालमें परस्वरूपाकार होनेसे भव्यस्वभाव है और तीनों कालों में भी द्रव्य परस्वरूपाकार नहीं होता, इसलिए अभव्य स्वभाव है। कहा भी है-सब द्रव्य लोकाकाशमें परस्परमें हिले-मिले हैं, एक दूसरेको स्थान दिये हए हैं। जहाँ धर्मद्रव्य है, वहीं शेषद्रव्य भी हैं। इस तरह सदा मिले हुए होने पर भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं। पारिणामिक भावकी प्रधानता होनेसे द्रव्य परमस्वभाववाला है । इस प्रकार द्रव्यके सामान्य स्वभावों की यह व्युत्पत्ति है । प्रदेश आदि गुणोंको तथा चेतना आदि विशेष स्वभावोंको व्युत्पत्ति पहले कही है। धर्मकी अपेक्षासे स्वभाव गुण नहीं होते हैं, किन्तु अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षासे गुण परस्परमें स्वभाव हो जाते हैं। द्रव्य भी स्वभाव हो जाते हैं। स्वभावसे अन्यथा भवन-अन्य रूप होने को विभाव कहते है । केवल भावको शुद्ध कहते हैं, उससे विपरीत भावको अशुद्ध कहते हैं। स्वभावका भी १ परिणामित्वा-ज. । २. नानि जीवद्रव्यस्य जीव इति संज्ञा, ज्ञानगणस्य ज्ञानमिति संज्ञा । चतुभिः प्राणः जीवति जीविष्यति अजीवतीति जीवद्रव्यलक्षणम् । ज्ञायते पदार्थोऽनेनेति ज्ञानमिति ज्ञानगुणलक्षणम् । जीवद्रव्यस्य वन्धमोक्षादिपर्यायैरविनश्वररूपेण परिणमनं प्रयोजनम् । ज्ञानगुणस्य पुनः पदार्थपरिच्छित्तिमात्रमेव प्रयोजनमिति संक्षेपेण । गुण-क. ग.। इदं टिप्पणं मले सम्मिलितमिति प्रतिभाति । ३. तस्मादपि प.। शुद्धस्यापि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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