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________________ १८८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० ३७१ - लेस्सा कसाय वेदा असिद्ध अण्णाण गई 'अचारितं । मिच्छत्तं ओदाइ यं सण चेरणं च उवैसमियं ॥३७१॥ मिच्छतियं चउसम्मग दंसणतिदयं च पंच लद्धीओ। मिस्सं सण चरणं विरदाविरवाण चारित्तं ॥३७२॥ आगे औदयिक भाव के इक्कीस भेद तथा औपशमिक के दो भेद कहते है छह लेश्याएँ, चार कषाय, तीन वेद, एक असिद्धत्व, अज्ञान एक, चार गति, अचारित्र और मिथ्यात्व ये इक्कीस भेद ओदयिक भाव के हैं। तथा सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र ये दो भेद औपशमिक भाव के हैं ॥३७१॥ विशेषार्थ- कर्म के उदय से जो भाव होता है उसे औदयिक भाव कहते हैं । उसके इक्कीस भेद हैं। कषाय के उदय से रंगी हुई मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है । उसके छह भेद है-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । जैसे लोक में बुरे आदमी को काला दिल का आदमी और सज्जन को साफ दिल दमी कहा जाता है। दिल काला या सफेद रंग का नहीं होता,किन्तु अच्छे और बरे में सफेद और काला रंग का उपचार करके ऐसा कहा जाता है। वैसे ही जिसकी कषाय बहत अधिक तीव्र होती है, उसके कृष्ण लेश्या, उससे कम तीवके नीललेश्या, उससे भी कम तीव्र के कापोतलेश्या कही जाती है। इसी तरह मन्द कषाय होने पर पीतलेश्या, और मन्द होने पर पद्मलेश्या, अत्यन्त मन्द होने पर शुक्ललेश्या होती है । इस तरह कषाय के उदय से लेश्या को औदयिक कहा है। कषाय का उदय छह प्रकार का होता है-तीव्र-. तम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम । इन छह प्रकार के कषाय के उदय से उत्पन्न हुई लेश्या छह हो जाती है । क्रोध, मान, माया और लोभ को कषाय कहते हैं। अतः कषाय चार है। केवल कषाय और केवल नोके मेलसे निष्पन्न लेश्या के कार्यमें अन्तर है। इस लिए लेश्या और कषायको अलग-अलग गिनाया है। आत्मा में वेदकर्म के उदय से उत्पन्न हए मैथनरूप चित्तवत्तिको वेद कहते हैं। वेद तीन हैं-परुषवेद. स्त्रीवेद और नपुंसकवेद । आठों कर्मोके सामान्य उदय से सिद्धभाव का न होना असिद्धत्व भाव है । ज्ञानावरण कर्म के उदय से अज्ञानभाव होता है। गति नाम कर्म के उदय से गतिरूप भाव होता है । गति चार हैं : नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति, देवगति । चारित्रमोहनीय कर्मके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदय में अचारित्र असंयम भाव होता है। और मिथ्यात्वमोहनीय के उदय में तत्त्व की अश्रद्धारूप मिथ्यात्व भाव होता है । इस तरह ये औदयिक भाव हैं। कर्म के उपशम से ( दब जाने से ) जो भाव होता है, उसे ओपशमिक भाव कहते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो उसके भेद हैं। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमोहनीय तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ के उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है और ' समस्त मोहनीयका उपशम होने पर औपशमिक चारित्र होता है । आगे क्षायोयशमिक भाव के अट्ठारह भेद कहते हैं तीन मिथ्याज्ञान, चार सम्यकज्ञान, तीन दर्शन, पाँच लब्धियाँ, क्षायोपमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र और विरताविरत चारित्र ये अठारह भेद क्षायोपशमिक भावके हैं ।।३७२।। विशेषार्थ-कुमति, कुश्रुत, और कुअवधि के भेद से मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का है । मति, श्रुत अवधि और मनःपर्यय के भेद से सम्यकज्ञान चार प्रकार का है। चक्षु-अचक्षु, अवधि के भेद से दर्शन तीन प्रकार का है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य के भेद से लब्धि पाँच प्रकार की है। क्षायोपशमिक १. गइ य चा -क० ख० ज० । २. चरियं च अ. क. ख. मु. । 'गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः । -तत्त्वार्थसूत्र २.६। ३. 'सम्यत्क्वचारित्रे'-त० सू० २।३ । ४. 'ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतूस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ।'-त. सु. १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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