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प्रस्तावना
२१
सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के व्यवहार और निश्चय स्वरूपों का कथन प्रायः 'पंचास्तिकाय' के आश्रय से किया गया है। इन प्रकरणों में कुछ ऐसी बातें भी आयी हैं जो वर्तमान चर्चाओं की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। वीतराग भाव से ही उनका अध्ययन करना लाभदायक हो सकता है। आगे उनके सम्बन्ध में लिखा जाएगा।
इस तरह यह एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें स्वाध्यायोपयोगी प्रायः सब विषय समाविष्ट हैं। इससे पूर्व के जिन ग्रन्थों में द्रव्य, गुण, पर्याय तथा नयों की चर्चा है, उसमें सप्ततत्त्व तथा रत्नत्रय की चर्चा नहीं है और सप्ततत्त्व तथा रत्नत्रय की चर्चा है, तो नयों की विस्तृत चर्चा नहीं है। अतः अन्य ग्रन्थों के होते हुए भी इस ग्रन्थ की उपयोगिता निर्विवाद है । और इसे रचकर ग्रन्थकार ने कमी की पूर्ति ही की है ।
ग्रन्थ में चर्चित विषय
१. द्रव्य, गुण, पर्याय
उपलब्ध जैन साहित्य में द्रव्य, गुण और पर्याय का तर्कपूर्ण वर्णन आचार्य कुन्दकुन्द के 'प्रवचनसार' और 'पंचास्तिकाय' में मिलता है। उनके पश्चात् जो कुछ इस विषय में कहा गया है, वह प्रायः उसी का विस्तार है । 'प्रवचनसार' में कहा है
दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिदा । तेसु गुणपज्जाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो ॥८७॥
- सब द्रव्य, उनके गुण और पर्याय इन सबकी अर्थ संज्ञा है । अर्थात् अर्थ शब्द से इन सबका ग्रहण होता है। उनमें से गुण, पर्यायों की आत्मा द्रव्य है, ऐसा जिनोपदेश है ।
आगे कहा है
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अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । पुणो ज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥
अर्थ द्रव्यमय है और द्रव्य गुणमय है । उनमें पर्याय होती हैं । यहाँ अर्थ द्रव्यमय और द्रव्यों को गुणमय कहने से उनके अभेद या ऐक्य को सूचित किया है। अन्य दार्शनिक द्रव्य और गुण को पृथक् पदार्थ मानते हैं और उनका सम्बन्ध मानते हैं । जैसे द्रव्य स्वयं सत् नहीं है, किन्तु सत्ता के सम्बन्ध से सत् है । किन्तु जैनों का कहना है कि यदि द्रव्य स्वरूप से सत् नहीं है, तो या तो वह असत् है या सत्ता से भिन्न है । यदि वह असत् है, तो उसका अभाव हो जाएगा। यदि वह सत्ता से पृथक् है, तो सत्ता के बिना भी रहने से सत्ता का ही अभाव कर देगा । इसलिए द्रव्य स्वयं सत् है; क्योंकि भाव (सत्ता) और भाववान् (द्रव्य) में अभेद होते हुए भी अन्यपना है। जैनदर्शन के अनुसार जिनके प्रदेश भिन्न होते हैं, वे ही वस्तुतः भिन्न होते हैं । किन्तु सत्ता और द्रव्य के प्रदेश भिन्न नहीं हैं। गुण और गुणी में प्रदेश भेद नहीं है । जैसे शुक्लगुण के और वस्त्र के प्रदेश भिन्न नहीं हैं, वैसे ही जो प्रदेश सत्तागुण के हैं वही प्रदेश द्रव्य के हैं । अतः दोनों में प्रदेशभेद तो नहीं है, फिर भी अन्यत्व है। अन्यत्व का लक्षण है-अतद्भाव अर्थात् तद्भाव का अभाव । गुण और गुणी में तद्भाव का अभाव है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- शुक्लगुण केवल एक चक्षु इन्द्रिय का ही विषय है; शेष सब इन्द्रियों का विषय नहीं है, किन्तु वस्त्र सब इन्द्रियों का विषय है । अतः दोनों में तद्भाव का अभाव है; क्योंकि एक इन्द्रिय का विषय शुक्लगुण सब इन्द्रियों के विषय वस्त्ररूप नहीं हो सकता और सब इन्द्रियों का विषय वस्त्र एक इन्द्रिय के विषय शुक्लगुणरूप नहीं हो सकता। इसी तरह सत्ता किसी आधार से रहती है, निर्गुण होती है, एक गुणरूप होती है, विशेषणरूप विधायक और वृत्तिस्वरूप होती है और द्रव्य किसी के आश्रय के बिना रहता है, गुणवाला और अनेक गुणों का समुदायरूप तथा विशेष्य, विधीयमान और वृत्तिमान् होता है । अतः उक्त स्वरूपा सत्ता उक्त स्वरूप द्रव्य नहीं है और द्रव्य उक्त सत्तारूप नहीं है । इसलिए उन दोनों में तद्भाव का अभाव है। इसी से सत्ता और द्रव्य में कथंचित् अभेद होने पर भी सर्वथा अभेद नहीं समझ लेना चाहिए; क्योंकि एकत्व का लक्षण तद्भाव है । जो तद्रूप नहीं है, वह एक कैसे हो सकता है ?
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