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________________ १७८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० ३५० - मोत्तण बहिचिता चिताणाणम्मि होइ सुदणाणं । तं पिय संवित्तिगयं झाणं सद्दिविणो भणियं ॥३५०॥ के लिए पुद्गल कर्मोंके निमित्तसे होनेवाला जीवका विकारी परिणाम हटना चाहिए और उसके लिए इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके ज्ञानस्वरूप आत्माका ध्यान करना चाहिए। उसे विचारना चाहिए कि न मैं शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण हूँ। जिनेन्द्रदेवने शरीर, मन और वाणीको पौद्गलिक कहा है और पुद्गल द्रव्य परमाणुओंका पिण्ड है। किन्तु मैं पुद्गलमय नहीं हूँ, न मैंने उन पुद्गलोंको पिण्डरूप किया है, इसलिए मैं शरीर नहीं हूँ और न शरीरका कर्ता हूँ। परमाणु तो स्वयं ही अपने स्निग्ध और रूक्ष गुणके कारण पिण्डरूप होते हैं । यह संसार सर्वत्र पुद्गलोंसे भरा है। उनमें जो कर्मरूप परिणमित होनेकी शक्तिवाले पुद्गल स्कन्ध होते हैं वे जीवको परिणतिको पाकर स्वयं ही कर्मरूप होते हैं । अतः मैं उनका परिणमन करानेवाला नहीं हूँ। कर्मरूप परिणत वे पुद्गल स्कन्ध ही आगामी भवमें शरीर बनने में निमित्त होते हैं और नोकर्मपुद्गल स्वयं ही शरीररूप परिणमित होते हैं इसलिए मैं शरीरका कर्ता नहीं हैं। मेरा यह आत्मा पुद्गलसे भिन्न है,क्योंकि इसमें न तो रस है, न रूप है, न गन्ध है, न इसका कोई आकार है,यह तो चैतन्यगुणवाला है । जीवके जो त्रस, स्थावर भेद तथा छह काय पृथिवीकाय आदि कहे जाते हैं वे सब वास्तवमें अचेतन होनेसे जीवसे भिन्न हैं। वस्तुतः जीव न तो त्रस है, न स्थावर है, न एकेन्द्रिय आदि है। इस तरह जीवके यथार्थ स्वरूपको जानकर उस स्वरूपका स्वसंवेदन करना चाहिए । 'मैं हूँ' ऐसी प्रतीति तो सभीको होती है, किन्तु इस प्रतीतिमें 'मैं' मात्रका संवेदन होनेपर भी उस 'मैं' में अशुद्धताका ही भान होता है। शुद्धस्वरूपका भान भेदविज्ञानके द्वारा ही सम्भव है। जैसे ज्ञानी पुरुष समल जलमें भी निर्म का भान करके पुनः उपायोंके द्वारा निर्मल जल प्राप्त कर लेता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अशद्ध अवस्थामें भी भेदविज्ञानके द्वारा शुद्धस्वरूपका अनुभव करके उस शुद्धस्वरूपकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न करता है। अतः शास्त्रज्ञानके द्वारा पहले आत्माका सद्भाव जानना चाहिए,पीछे उसे प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए । उसीके लिए आत्मध्यान आवश्यक है। ऊपर संवेदनके द्वारा आत्मध्यान करनेका उपदेश दिया है। आगे ग्रन्थकार उसोको स्पष्ट करते हैं बाह्य चिन्ताको छोड़कर ज्ञानका चिन्तन करनेसे श्रुतज्ञान होता है । वही ज्ञान संवित्तिगत होने पर सम्यग्दृष्टिका ध्यान कहा गया है ।।३५०॥ विशेषार्थ-मनुष्यका समस्त जीवन बाह्य पदार्थोंकी चिन्तामें ही बीतता है। मनुष्यका समस्त जीवन ही अर्थ और काममय है। जब वह युवा होता है तो उसकी चिन्ताके दो ही मुख्य विषय होते हैं-धन और कामभोग। उन्हीं की चिन्तामें उसका जीवन समाप्त हो जाता है, अपनी चिन्ता वह कभी भी नहीं करता) 'मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, कहाँ जाऊँगा' यह विचार ही उसके मनमें नहीं आता । बाहरकी चिन्तासे मुक्ति मिले तो अपनी चिन्ता करे। अतः आत्मचिन्तनके लिए बाह्य चिन्ता छोड़ना चाहिए-उसे कम करना चाहिए । इस प्रकार बाह्यचिन्तासे मुक्त होकर आत्मबोधक शास्त्रोंका स्वाध्याय करके जो सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है उसीको वास्तवमें श्रुतज्ञान कहते हैं । वह श्रुतज्ञान जिसे वस्तुतः आत्मज्ञान कहना अधिक उपयुक्त होगा-जब संवित्तिगत होता है अर्थात् उस ज्ञानके द्वारा आत्मचिन्तनमें निमग्न ध्यानी आत्मिक सुखका रसास्वादन करता है, उसकी वह एकतानता ही ध्यान कहा जाता है। सारांश यह है कि स्वसंवेदन रूप भावश्रुतसे आत्माको जानता है, जानकर आत्माकी भावना करता है । तब उस वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञान भावनासे केवलज्ञान उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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