________________
-३४५]
नयचक्र
१७५
उक्तंच
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ णाणिस्स ।
तं अप्पसहावठिए णहु मण्णइ सो हु अण्णाणी ।।-( मो. पा. गा. ७६ ) दृष्टान्तद्वारेण शुद्धचारित्रस्य मलहेतुत्वं चाह
जह सुह णासइ असुहं तहेव असुहं सुद्धेण खलु चरिए। तम्हा सुद्धवजोगी मा वट्टर णिदणादीहिं ॥३४५॥ आलोयणादिकिरिया जं विसकुंभेत्ति सुद्धचरियस्स। भणियमिह समयसारे तं जाण सुएण अत्थेण ॥३४६॥
कहा भी है
पंचमकालमें भरतक्षेत्र में आत्मस्वभावमें स्थित ज्ञानी सम्यग्दृष्टिके धर्मध्यान होता है। जो ऐसा नहीं मानता है वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है।
दृष्टान्तके द्वारा शुद्धचारित्रमें दोष लगानेवाले कारणोंको कहते हैं
जैसे शुभ अशुभको नष्ट करता है, वैसे ही शुद्धचारित्रके द्वारा शुभका नाश होता है। इसलिए शुद्धोपयोगी साधुको निन्दा, गर्हा वगैरह नहीं करना चाहिए ॥ ३४५ ॥
विशेषार्थ-शुभोपयोगकी दशामें अशुभोपयोग नहीं होता और शुद्धोपयोगकी दशामें शुभोपयोग नहीं होता। अतः जैसे शुभोपयोग अशुभोपयोगका नाशक है, वैसे ही शुद्धोपयोग शुभोपयोगका नाशक है । इसलिए जो साधु शुद्धोपयोगमें लीन है, उस समय उसे आत्मनिन्दा, गर्हा वगैरह नहीं करना चाहिए। सरागचारित्र अवस्थामें दोषोंकी शुद्धिके लिए प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि ये आठ उपाय बताये गये हैं । लगे हुए दोषोंके दूर करनेको प्रतिक्रमण कहते हैं। सम्यक्त्व आदि गुणोंमें प्रेरणा करनेको प्रतिसरण कहते हैं। मिथ्यात्व, राग आदि दोषोंके दूर करनेको परिहार कहते हैं। पंचनमस्कार मन्त्र, आदि बाह्य द्रव्योंके आलम्बनसे चित्तके स्थिर करनेको धारणा कहते हैं । बाह्य विषय कषायसे चित्तको हटानेको निवृत्ति कहते हैं। अपने दोषोंको प्रकट करनेका नाम निन्दा है। और गुरुके सामने दोषोंको प्रकट करना गर्दा है। दोष लगने पर प्रायश्चित्त ग्रहण करके उसको शोधना विशुद्धि है। ये आठ प्रकारके विकल्प शभोपयोगरूप हैं। इसलिए यद्यपि मिथ्यात्व. विषयकषाय आदिमें परिणतिरूप अशभोपयोग को अपेक्षा सविकल्प सरागचारित्र अवस्थामें ये अमतकुम्भ-अमतसे भरे घड़के तुल्य माने गये हैं। तथापि वीतराग चारित्रको अवस्थामें उन्हें विषकुम्भ माना है। क्योंकि वीतराग चारित्र निर्विकल्प शुद्धोपयोगरूप होता है। उसमें समस्त परद्रव्योंके आलम्बनरूप जो विभाव परिणाम होते हैं, उनका लेश भी नहीं रहता। सारांश यह है कि अप्रतिक्रमणके दो प्रकार हैं-एक ज्ञानीजनोंका अप्रतिक्रमण और एक अज्ञानीजनोंका अप्रतिक्रमण । अज्ञानीजनोंका अप्रतिक्रमण तो विषयकषायमें आसक्तिरूप होता है, विषयकषायोंमें फंसे रहनेसे वे प्रतिक्रमण क्यों करेंगे? किन्तु ज्ञानीजनोंका अप्रतिक्रमण शुद्धात्माके सम्यक् श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् अनुष्ठानरूप होता है। इस ज्ञानीजनोंके अप्रतिक्रमणको सरागचारित्ररूप शभोपयोगको अपेक्षासे यद्यपि अप्रतिक्रमण कहा जाता है, तथापि वीतराग चारित्रकी अपेक्षा तो वही निश्चयप्रतिक्रमण है। क्योंकि उसके द्वारा समस्त शुभ-अशुभ आस्रवोंका निराकरण होता है । 'समयसारके' मोक्षाधिकारमें ऐसा ही कहा है। यह आगे ग्रन्थकार स्वयं कहते है
१. 'भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहस्स । तं अप्पसहावठिदे ण ह मण्णई सोवि अण्णाणी ॥७६॥'मोक्षप्राभृत । २. अशुद्धचा-मु०। ३. -त्रस्य विनाशहेतुं शद्धि चाह अ. क० ख० ज० मु०। ४. 'पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । णिदो गरहा सोही अट्टविहो होइ विसकुंभो ॥३०६॥ अपडिकमणं अप्पडिसरणं अपरिहारो अधारणा च । अणियत्ती य अणिदागरहाऽसोही अमियकुंभो ॥३०७॥'-समयसार ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org