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प्रस्तावना
१६
अमितगति का प्रभाव है, अतः वह अमितगति के पश्चात् हुए हैं। अमितगति ने अपने सुभाषित रत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा और पंचसंग्रह में उनकी समाप्ति का काल क्रम से वि.सं. १०५०, १०७० और १०७३ दिया है। अतः पद्मनन्दि विक्रम की ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध में या उसके पश्चात् किसी समय हुए हैं। एकत्व सप्तप्ति पर एक कन्नड़ टीका भी उपलब्ध है। यह कन्नड़ टीका' वि.सं. ११६३ के लगभग रची गयी थी। इस टीका के कर्ता का नाम भी पद्मनन्दि है। यदि दोनों पद्मनन्दि एक ही व्यक्ति हैं तो उनका निश्चित समय ११६३ जानना चाहिए; अन्यथा वे १०७३ और ११६३ के मध्य किसी समय हुए हैं। अतः माइल्लधवल का समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और तेरहवीं का पूर्वार्ध जानना चाहिए।
गुरुदेवसेन
'द्रव्य-स्वभावप्रकाशक नयचक्र' के अन्त में माइल्लधवल ने 'नयचक्र' के कर्ता देवसेन गुरु को नमस्कार किया है और उन्हें स्यात् शब्द से युक्त सुनय के द्वारा दुर्नयरूपी दैत्य के शरीर का विदारण करने में श्रेष्ठ वीर कहा है। यथा
सिय सद्दसुणय दुण्णयदणुदेह-विदारणेक्कवरवीरं।
तं देवसेणदेवं णयचक्ककर गुरुं णमह ॥४२३॥ इससे पूर्व की दो गाथाओं में नयचक्र को नमस्कार करते हुए उसे श्रुतकेवली कथित आदि कहा है। इस तरह इन तीन गाथाओं की क्रम संख्या ४२१, ४२२, ४२३ है। इनसे पूर्व की गाथा में कहा है
सुणिऊण दोहसत्यं सिग्घं हसिऊण सुहंकरो भणइ।
एत्थ ण सोहइ अत्थो गाहाबंधेण तं भणइ ॥१६॥ -दोहाशास्त्र को सुनते ही हँसकर शुभंकर बोला-इस रूप में यह ग्रन्थ शोभा नहीं देता, गाथाओं में इसकी रचना करो। इसके पश्चात् गाथा ४२१-४२३ में नयचक्र और उसके कर्ता देवसेन को नमस्कार करके पुनः लिखा है
दव्वसहावपयासं दोहयबंधेण आसि जं दिट्ठ ।
तं गाहाबंधेण रइयं माइल्लधवलेण ॥४२४॥ -जो 'द्रव्यस्वभावप्रकाश' दोहों में रचा हुआ देखा गया, उसे माइल्लधवल ने गाथाबद्ध कर रचा है।
गाथा ४१६ और ४२४ संबद्ध हैं। उनके मध्य में आगत तीन गाथाएँ उनमें विसंगति पैदा करती हैं। उन्हें गाथा ४२४ के बाद होना चाहिए था, किन्तु प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में यही क्रम पाया जाता है।
अब प्रश्न होता है कि दोहाशास्त्र किसका रचा हुआ था? क्या माइल्लधवल ने उसे रचा था? गाथा ४२४ से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'द्रव्यस्वभाव प्रकाश' नाम का कोई दोहाबद्ध ग्रन्थ था, उसे माइल्लधवल ने गाथाबद्ध किया है। और दोहाबद्ध 'द्रव्यस्वभाव प्रकाश' और देवसेन के 'नयचक्र' को आत्मसात् करके प्रकृत ग्रन्थ को 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' नाम दिया है। इसकी आरम्भिक उत्थानिका में भी ग्रन्थकर्ता ने अपने को गाथाकर्ता ही कहा है; ग्रन्थकर्ता नहीं कहा।
यह दोहाबद्ध द्रव्यस्वभाव प्रकाश किसने कब रचा था, इसका कोई संकेत कहीं से नहीं मिलता। इस नाम के दोहाबद्ध ग्रन्थ का निर्देश भी अन्यत्र से नहीं मिलता। ऐसा प्रतीत होता है कि माइल्लधवल ने उसे आत्मसात् कर लिया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ४२४ के पश्चात् एक गाथा और आती है जो अन्तिम है; किन्तु उस गाथा के दो रूप मिलते हैं, फिर भी गाथा का पूर्वार्ध अशद्ध होने से स्पष्ट नहीं होता।
गाथा के उत्तरार्ध के दो पाठ पाये जाते हैं। एक पाठ में कहा है कि देवसेन योगी के प्रसाद से नयचक्र
१. देखो, जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित पद्म. पंचविं. की प्रस्तावना, पृ. ३५ ।
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