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नयचक्र
'अर्थात इसके रयचिता भट्टारक देवसेन हैं। व्योम पण्डित के प्रतिबोध के लिए इसकी रचना की गयी है और इसका नाम श्रुतभुवनदीप नयचक्र है।'
उन देवसेन से भिन्नता बतलाने के लिए भट्टारक पद समाविष्ट किया गया है और उनके नयचक्र से भिन्नता बतलाने के लिए श्रुतभुवनदीप नयचक्र नाम रखा गया है।
भट्टारक सम्प्रदाय में देवसेन नाम के तीन नाम मिलते हैं। दो देवसेन तो काष्ठासंघ माथुर गच्छ में हुए हैं। इनमें से प्रथम तो प्रथम अमितगति के गुरु थे। वे तो इस श्रुतभुवन दीप के रचयिता नहीं हो सकते; क्योंकि इसकी रचना देवसेन के गाथाबद्ध नयचक्र के पश्चात् ही हुई है। इस संघ में दूसरे देवसेन उद्धरसेन के शिष्य हैं। यह विक्रम की तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के लगभग हुए हैं। तीसरे देवसेन लाटवागड़ गच्छ में हुए हैं। वह कुलभूषण के गुरु थे। हम नहीं कह सकते कि किस देवसेन भट्टारक ने 'श्रुतभुवनदीप' रचा है? ग्रन्थ के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वह अपने विषय के अच्छे विद्वान और सुलेखक थे।
द्रव्यस्वभाव-प्रकाशक नयचक्र नाम-प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' है। उसकी प्रारम्भिक उत्थानिका में ग्रन्थकार ने इस नाम की घोषणा की है। द्रव्यस्वभावप्रकाशक विशेषण देवसेन के 'नयचक्र' से भिन्नता का सूचन करने के लिए लगाया गया है। इसके साथ ही इसमें देवसेन के 'नयचक्र' की तरह केवल नयों का ही विवेचन नहीं है, किन्तु आलापपद्धति की तरह द्रव्य, गुण, स्वभाव वगैरह का भी कथन है। अतः इसका यह नाम सार्थक है।
ग्रन्थकर्ता-इसके रचयिता का नाम माइल्लधवल है। ग्रन्थ के अन्त में आगत प्रशस्ति गाथा में प्रतिभेद से नाम भेद भी मिलता है। इन्होंने अन्य भी कोई ग्रन्थ रचा था या नहीं, यह ज्ञात नहीं होता। अन्यत्र इस नाम के किसी ग्रन्थकार का भी उल्लेख नहीं मिलता। सम्भव है, यही इनकी एकमात्र कृति हो।
रचनाकाल-यह ग्रन्थ कब और कहाँ रचा गया यह भी ज्ञात नहीं होता, किन्तु प्रशस्ति के उल्लेख से तथा ग्रन्थ के अन्तःपरीक्षण से यह स्पष्ट है कि देवसेन के 'नयचक्र' के पश्चात् ही इसकी रचना हुई है। अतः यह विक्रम की दसवीं शताब्दी बीतने पर किसी समय रचा गया है। तथा पं. आशाधर ने 'इष्टोपदेश' के २२वें श्लोक के अन्तर्गत अपनी टीका में एक गाथा उद्धत की है जो द्रव्य० नयचक्र की तीन सौ उनचासवीं गाथा है। पं. आशाधर का सुनिश्चित समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है। उन्होंने अपने 'अनगारधर्मामृत' की टीका वि.सं. १३०० में समाप्त की थी। अतः विक्रम संवत १००० से १३०० के मध्य में किसी समय माइल्लधवल ने अपना 'नयचक्र' रचा है।
उसमें अनेक गाथाएँ तथा श्लोक भी उद्धृत हैं, किन्तु उनके स्थलों का पता ज्ञात नहीं होता कि उन्हें कहाँ से उद्धृत किया गया है? 'अणुगुरुदेहपमाणो' आदि एक गाथा 'द्रव्यसंग्रह' से उद्धृत है। यह गाथा देवसेन के 'नयचक्र' में भी पायी जाती है। इसकी स्थिति का ठीक परिचय तो देवसेन के नयचक्र की हस्तलिखित प्रतियों के निरीक्षण से ही सम्भव है। किन्तु माइल्लधवल का 'नयचक्र' अवश्य ही द्रव्यसंग्रह के पश्चात् रचा गया होना चाहिए, क्योंकि द्रव्यसंग्रह की रचना विक्रम की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में हुई है। इस नयचक्र के अन्त में आचार्य पद्मनन्दि की एकत्व सप्तति से भी दो श्लोक उद्धृत किये गये हैं जो उसके १४-१५ नम्बर के पद्य हैं। यह एकत्व सप्तति 'पद्मनन्दि पंचविंशतिका' के अन्तर्गत है। उसका एक पद्य इस प्रकार है--
'निश्चयो दर्शनं पंसि बोधस्तद् बोध इष्यते।
स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगशिवाश्रयः ॥' इस पद्य को आचार्य पद्मप्रभ ने 'नियमसार' की टीका में तथा जयसेन ने 'पंचास्तिकाय' की टीका में उद्धृत किया है। अतः आचार्य पद्मनन्दि इन दोनों ग्रन्थकारों से पहले हुए हैं। साथ ही पद्मनन्दि की रचना पर
१. 'गहियं तं सुअणाणा पच्छा संवेयणेण भाविज्जा। जो ण हु सुयमवलंवइ सो मुज्झई अप्पसब्भावे ॥' २. देखो, 'कुछ आचार्यों के कालक्रम पर विचार' शीर्षक हमारा लेख, जैन सन्देश शोधांक ७ में।
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