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________________ -१८१ ] नयचक्र च्छिती वत्थूणं साहइ तह दंसणम्मि णिच्छित्ति । णिच्छयदंसण जीवो दोण्हं आराहओ होई ॥ १७९ ॥ एकान्ताने कान्तस्वरूपं तौ च मिथ्या सम्यगिव्याहएयंतो एयणओ होइ अणेयंत 'तस्स समूहो । तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं ॥ १८० ॥ नयदृष्टिरहितानां दोषमुद्भाव्य तस्यैव भेदं विषयं स्वरूपं नाम न्यायं च दर्शयतिजे यदिट्ठविहीणा ताण ण वत्थूसहावउवलद्धि । वत्सहावविहूणा सम्मादिट्ठी कहं हुंति ॥ १८१ ॥ प्रमाण और नयके स्वरूपका निश्चय होनेपर वस्तुका निश्चय होता है और वस्तुका निश्चय होनेपर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है । इस तरह वस्तु स्वरूपके निश्चय और सम्यग्दर्शन के द्वारा जीव ध्यान और ध्यानकी भावनाका आराधक होता है || १७९ ॥ - आगे एकान्त और अनेकान्तका स्वरूप तथा उनके सम्यक् और मिथ्या होनेका कथन करते हैंएक नयको एकान्त कहते हैं और उसके समूहको अनेकान्त कहते हैं । जो सच्चा और मिथ्या होता है || १८० || यह ज्ञानका भेद है १०३ विशेषार्थ- वस्तु अनेकान्तात्मक है | वह नित्य भी है अनित्य भी है, एक भी है अनेक भी है, सत् भी है और असत् भी है, तद्रूप भी है और अतद्रूप भी है । द्रव्यरूपसे नित्य है, एक है और तद्रूप है, पर्याय रूपसे अनित्य है, अनेक है और अतद्रूप है । द्रव्यरूपको जाननेवाली दृष्टिका नाम द्रव्यार्थिक नय है । और पर्यायरूपको जाननेवाली दृष्टिका नाम पर्यायार्थिक नय है । तथा द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है । प्रमाणके ही भेद नय हैं। यदि कोई द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुके केवल द्रव्यांशको ही ठीक मानता है या केवल पर्यायांशको ही ठीक मानता है, तो उसकी ऐसी मान्यता मिथ्या है क्योंकि वस्तु न केवल द्रव्यरूप ही है और न केवल पर्यायरूप ही है, किन्तु उभयरूप है । हां, द्रव्यको प्रधान और पर्यायको गौण करके या पर्यायको प्रधान और द्रव्यको गौण करके जो वस्तुके द्रव्यांश या पर्यायांशको ग्रहण करता है वह सम्यक् है, क्योंकि उसने एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुको जानकर भी दूसरे धर्मका निषेध नहीं किया । अतः नयका विषय एकान्त है, क्योंकि वस्तुके एक धर्मको ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । वह यदि अन्य सापेक्ष होता है जो सम्यक् है और अन्य निरपेक्ष होता है तो मिथ्या । सम्यक् एकान्तोंके समूहका नाम ही अनेकान्त है । वही पूर्ण सत्य है । नय दृष्टिसे रहित जनोंका दोष बतलाकर नयके भेद, विषय, स्वरूप और नाम बतलाते हैंजो नयदृष्टिसे विहीन हैं उन्हें वस्तुके स्वरूपका ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तुके स्वरूपको न जाननेवाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं ? | १८१ ।। विशेषार्थ — सम्यग्दृष्टि बनने के लिए वस्तु स्वरूपका ज्ञान होना आवश्यक है और वस्तु स्वरूपके ज्ञान के लिए नयदृष्टिका होना आवश्यक है । नय-दृष्टि के बिना वस्तुके स्वरूपको ठीक-ठीक नहीं जाना जा सकता। क्योंकि जैन सिद्धान्त में वस्तु अनेक स्वभाववाली मानी गयी है । जो नित्य है वही अनित्य भी है और जो अनित्य वह नित्य भी है । द्रव्यरूपसे प्रत्येक वस्तु नित्य है, पर्यायरूपसे प्रत्येक वस्तु अनित्य है । इसीसे मूल नय भी दो हैं— द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक द्रव्यार्थिक नयका विषय वस्तुका द्रव्यांश है और पर्यायार्थिक नका विषय वस्तुका पर्यायांश है । ये दोनों परस्पर सापेक्ष होते हैं । कभी नयदृष्टि मुख्य रहती है तो दूसरी गौण । दोनों नयोंकी मुख्यता और गौणतासे ही जैन सिद्धान्त में तत्त्वका विवेचन किया गया है । जैसे देवदत्त १. त यस्य अ० क० । अणेयं णयस्स ख० । अयं तमस्स मु० । २. जोववियप्पं आ० । ३. मुद्दिश्य आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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