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________________ १०२ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०१७७ उक्तं च पंचवर्णात्मकं चित्रं तत्र वर्णैकग्राहकम् । क्रमाक्रमस्वरूपेण कथं गृह्णाति भो बद ।।१।। सर्वथैकान्तरूपेण यदि जानाति वास्तवम् । भूरिधर्मात्मकं वस्तु केन निश्चीयते स्फुटम् ।। स्वार्थाभिलाषिणां स्वार्थस्य मार्गमुन्मार्ग च दर्शयति झाणं झाणभासं झाणस्स तहेव भावणा भणिया। मोत्त झाणाभासं वेहि पिय संजओ समणो ॥१७७॥ झाणस्स भावणे वि य ण हु सो आराहओ हवे णियमा। जो ण विजाणइ वत्थु पमाणणयणिच्छयं किच्चा ॥१७८॥ उक्तं च प्रमाणनयनिक्षेपैर्योर्थान्नाभिसमीक्षते । युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥१॥ पंचरंगे चित्र में से एक रंगका ग्रहण करनेवाला क्रम या अक्रम रूपसे कैसे ग्रहण कर लेता है। यदि सर्वथा एकान्त रूपसे जानना वास्तविक है तो अनेक धर्मात्मक वस्तुका निश्चय कैसे करते हो ॥ अर्थात् जैसे पचरंगे चित्र में से एक रंगका ग्रहण होता है वैसे ही अनेक धर्मात्मक वस्तुमें से ज्ञाता एक धर्मका ग्रहण करता है । यह नयके बिना सम्भव नहीं है । अतः एकान्तकी सिद्धि के लिए नयको अपनाना आवश्यक है। आगे स्वार्थके अभिलाषियोंको स्वार्थका मार्ग और कुमार्ग बतलाते हैं ध्यान, ध्यानाभास और ध्यानकी भावना कहो है । श्रमणको ध्यानाभास छोड़कर ध्यान और ध्यानको भावना करना चाहिए। किन्तु जो प्रमाण और नयका निश्चय करके वस्तुको नहीं जानता वह ध्यानको भावना होनेपर भी नियमसे आराधक नहीं है ।।१७७-१७८।। विशेषार्थ-मिथ्या ध्यानको ध्यानाभास कहते हैं । या जो ध्यान तो नहीं होता किन्तु ध्यानको तरह लगता है वह भी ध्यानाभास है। शास्त्रकार कहते हैं कि साधुको ध्यानाभास नहीं करना चाहिए, सम्यक् ध्यान करना चाहिए या उसकी भावना भाना चाहिए कि मैं अमुक-अमुक प्रकारसे ध्यान करूँगा आदि । किन्तु ध्यान तो वस्तुका किया जाता है और बस्तु स्वरूपका निर्णय प्रमाण और नयके द्वारा होता है। किन्तु जिसे प्रमाण और नयका ही ज्ञान नहीं है वह वस्तुका निर्णय कैसे कर सकता है और उसके बिना वह उसका ध्यान कैसे कर सकता है। इसलिए साधुको प्रमाण और नयका स्वरूप भी जानना चाहिए । यद्यपि ध्यानकी गणना चारित्रके भेदोंमें की है क्योंकि वह निवृत्तिरूप है किन्तु वास्तवमें ध्यान ज्ञानगुणको पर्याय है । चंचलको ज्ञान कहते हैं और स्थिरको ध्यान कहते हैं। आप स्वाध्याय कर रहे हैं, स्वाध्याय करते हुए ज्ञानको धारा चल रही है। कदाचित् किसी एक विषयके चिन्तनमें यदि मन एकाग्र हो जाता है तो वह ध्यानका ही प्रतिरूप है । अतः ध्यानके अभ्यासीको प्रमाण नयका स्वरूप अवश्य जानना चाहिए। कहा भी है जो प्रमाण, नय और निक्षेपसे अर्थको भलीभांति नहीं जानता, उसे युक्त अयुक्तकी तरह प्रतीत होता है और अयुक्त युक्तकी तरह प्रतीत होता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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