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नयचक्र पर्यायस्थितिकारणमाह
सुरणरणारयतिरिआ पयडीओ णामकम्मणिवत्ता।
जहण्णोक्कस्सामज्झिमआउवसेणं तिहा हु ठिदी ॥८६॥ चतुर्गतिजीवानां जघन्यमध्यमोत्कृष्टायुःप्रमाणं कथयति । तत्र तावन्मनुष्याणाम्
अंतमुहत्तं अवरा वरा हु मणुवाण होइ पल्लतियं ।
मज्झिम अवरा वड्ढी जाव वरं समयपरिहीणं ॥८॥ तिरश्चाम्
जह मणुए तह तिरिए गब्भजपंचिदिए वि तण्णेयं । इयराणं बहुभेया आरिसमग्गेण णायव्वा ॥८॥
आगे पर्यायस्थितिका कारण कहते हैं
देवगति, मनुष्यगति, नरकगति और तिर्यञ्चगति ये नामकर्मकी प्रकृतियाँ हैं । जघन्य, उत्कृष्ट, और मध्यमके भेदसे आयुकी तीन स्थितियाँ हैं ।।८६।।
विशेपार्थ-एक तो गति नामकर्म है और दूसरा आयुकर्म । गतिनामकर्म तो जीवके सदा बँधता है, किन्तु आयुकर्मका बन्ध त्रिभागमें ही होता है । आयुकर्मके अनुसार ही जीवको उस गतिमें मरकर जाना होता है। उत्कृष्ट, जघन्य या मध्यम जैसी आयुकर्मकी स्थिति बंधती है,जीव उसीके अनुसार उस गतिमें जाकर अपनी स्थिति पर्यन्त उस पर्यायमें रहता है। आयु समाप्त होनेपर बाँधी गयी दूसरी आयुके अनुसार पुनर्जन्म लेता है। इस तरह अमुक पर्यायमें स्थितिका कारण आयुकर्म है। आयुकर्मके अनुसार अपनी पर्यायमें स्थित रहकर जीव पूर्व संचित शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगता है और नवीन बन्ध करता है । कर्मके करने और भोगनेकी यह परम्परा उसकी तब तक चालू रहती है, जब तक वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके कर्मबन्धनको नहीं काट देता।
आगे चारों गतिके जीवोंकी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट आयुका प्रमाण बतलाते हुए सर्वप्रथम मनुष्योंको आयुका प्रमाण कहते हैं
__ मनुष्योंकी जघन्य आयुका प्रमाण एक अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट आयका प्रमाण तीन पल्य है। मध्यम आयुका प्रमाण एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्तसे लेकर उत्कृष्ट आयु तीन पल्यमें एक समय कम तक जानना ॥८७।।
विशेषार्थ-मनुष्य कर्मभूमिज और भोगभूमिजके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । कर्मभूमिज मनुष्योंकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है और भोगभूमिज मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य होती है। इसीसे मनुष्य सामान्यकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य बतलायी है। जघन्य आयुमें एक समयको वृद्धिसे लेकर उत्कृष्ट आयुमें एक समयकी हीनता पर्यन्त सब आयु मध्यम आयु जानना चाहिए ।
आगे तिर्यञ्चोंकी आयुका प्रमाण कहते है
जैसे मनुष्योंमें जघन्य उत्कृष्ट और मध्यम आयुका प्रमाण बतलाया है वैसे ही गर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें भी जानना । शेष तिर्यञ्चोंके बहुत भेद आगमके द्वारा जानना चाहिए ।।८८॥
१. णंति आउ ठिदो अ० क.।
२. चरं अ० । 'नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥ तत्त्वार्थसू०
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