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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा०८५ एताः सामान्येन शुभाशुमभेदमिझा जीवानां सुखदुःखफलदा भवन्तीत्याह असुहसुहाणं भेया सव्वा वि य ताउ होंति पयडीओ। काऊण पज्जयठिविं सुहदुखं फलति जीवाणं ॥८५॥ उत्तर प्रकृतियां जाननी चाहिए। इनके भी उत्तरोत्तर अनेक भेद होते हैं। इसीसे आगममें कर्म प्रकृतियों के असंख्यातलोक भेद बतलाये हैं। आगे कहते हैं कि ये कर्म प्रकृतियाँ शुभ और अशुभ के भेदसे भिन्न होकर जीवोंको सुख और दुःखरूप फल देती हैं___ वे सभी कर्म प्रकृतियाँ अशुभ और शुभके भेदसे दो प्रकारकी होती हैं तथा एक पर्यायमें स्थिति करके जीवोंको सुख और दुःखरूप फल देती हैं ।।८५।। विशेषार्थ-आठ कर्मोमेंसे चार कर्म तो घाती कहे जाते हैं और चार अघाती । जो कर्म आत्माके गुणको घातते हैं वे घातीकर्म कहे जाते हैं। ऐसे कर्म ४ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। ज्ञानावरण कर्म आत्माके ज्ञानगणको घातता है.इसीके कारण संसारी जीवोंमें ज्ञानगुणकी मन्दता पायी जाती है । दर्शनावरण कर्म जीवके दर्शन गणको घातता है। मोहनीय कर्म जीवके सम्यक्त्व और चारित्र गुणको घातता है तथा अन्तरायकर्म वीर्य गुणको घातता है। इस तरह ये चार कर्म घाती हैं। इसीसे इन्हें तो अशुभ ही माना जाता है, क्योंकि जो कर्म आत्मगुणका घाती होता है उसे शुभ कैसे माना जा सकता है) शेष चार अघाती कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ शुभ और अशभ मानी गयी हैं। जिन प्रकृतियोंका फल सांसारिक सुख होता है वे शुभ मानी गयी है और जिन प्रकृतियोंका फल दुःख होता है वे अशुभ मानी गयी हैं । आयुकर्मकी चार उत्तर प्रकृतियोंमें केवल नरकायुको अशभ माना है और शेष तीन आयुओंको शुभ माना है। क्योंकि भोगभूमिके तिर्यञ्च भी सुखी ही होते है, इसलिए तिर्यञ्चायुको भी शुभ माना है । नामकर्मके भेदोंमें नरकगति नरक गत्यानुपूर्वी और तिर्यञ्चगति तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी अशुभ हैं, मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी तथा देवगति देवगत्यानुपूर्वी शभ हैं। पांच जातियोंमेंसे पञ्चेन्द्रिय जातिनामकर्म शभ हैं शेष चार अशुभ हैं। पांचों शरीरनामकर्म, पाँचों बन्धन नामकर्म, पाँचों संघात नामकर्म और तीनों अंगोपांग नामकर्म शुभ हैं। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्मकी गणना शभमें भी की जाती है और अशभमें भी की जाती है, क्योंकि विभिन्न जीवोंको विभिन्न रूपादि प्रिय और अप्रिय होते हैं। ६ संस्थानों और ६ संहननमें से केवल एक समचतुरस्र संस्थान और वज्रर्षभ नाराच संहनन शुभ माना गया है, शेष सब अशुभ माने गये हैं। उपघात अशुभ माना गया है। अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योत नामकर्मोको शुभ माना गया है। प्रशस्त विहायोगति शुभ है,अप्रशस्त विहायोगति अशुभ है। त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति नामकर्म शुभ है। इनके विपरीत स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति नामकर्म अशुभ हैं । निर्माण और तीर्थङ्कर नामकर्म शुभ है । उच्चगोत्र शुभ है, नीच गोत्र अशुभ है । सातावेदनीय शुभ है, असातावेदनीय अशुभ है । इस तरह कर्मोमें शुभ और अशुभ भेद सांसारिक सुख-दुःख रूप फलकी अपेक्षासे किया गया है। किन्तु कर्म शभ हो या अशुभ, है तो बन्धन रूप ही। शृंखला सोनेकी हो या लोहे की, शृंखला तो श्रृंखला ही है। जैसे लोहेकी साँकल बांधती है, वैसे ही सोने की सांकल भी बांधती है। परतन्त्रताको कारण दोनों ही हैं। सांसारिक दृष्टिमें लोहेसे सोना बहुमूल्य माना जाता है, चमकदार रंगवाला भी होता है। किन्तु बन्धनकी दृष्टिसे दोनों समान हैं । इसीसे आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है कि जो संसारमें रोकता है, वह कर्म शुभ कसे कहा जा सकता है। अतः कर्मों में शुभ-अशभ भेद सांसारिक सुख-दःखकी दष्टिसे ही किया गया है। कर्म त उसके रहते हुए संसारसे छुटकारा नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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