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________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका प्रत्याख्यान हो जानेका उल्लेख जरूर मिलता है और जिसपर मुझे यह भ्रान्ति' हुई थी कि विद्यानन्दने वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्यटीकाका भी खण्डन किया है । परन्तु उक्त उल्लेखपर जब मैंने गहराई और सूक्ष्मता से एक-से-अधिक बार विचार किया और ग्रन्थोंके सन्दर्भोंका बारीकीसे मिलान किया तो मुझे वह उल्लेख अभ्रान्त प्रतीत नहीं हुआ । वह उल्लेख निम्न प्रकार है --- 'तदनेन न्यायवात्तिकटीकाकारव्याख्यानमनुमानसूत्रस्य त्रिसूत्रीकरणेन प्रत्याख्यातं प्रतिपत्तव्यमिति, लिङ्गलक्षणानामन्वयित्वादीनां त्रयेण पक्षधर्मत्वादीनामिव न प्रयोजनम् ।' इस उल्लेख में 'टीका' शब्द अधिक है और वह लेखककी भूलसे ज्यादा लिखा गया जान पड़ता है--- ग्रन्थकारका स्वयंका दिया हुआ वह प्रतीत नहीं होता । क्योंकि यदि ग्रन्थकार 'टीका' शब्दके प्रदानसे वाचस्पतिमिश्रकी तात्पर्यटीका विवक्षित हो तो उनका आगेका हेतुरूप कथन सङ्गत नहीं बैठता । कारण, अन्वयी, व्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी इन तोन हेतुओंका कथन पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षाद्व्यावृत्ति इन तीन हेतुओं के कथन की तरह न्यायवार्तिककार उद्योतकरका अपना मत हैउद्योतकरने ही 'पूर्वच्छेषवत्' आदि अनुमानसूत्रका त्रिसूत्रीकरणरूपसे व्याख्यान किया है अर्थात् उन्होंने उक्त अनुमानसूत्र के तीन व्याख्यान प्रदर्शित किये हैं, तात्पर्यटीकाकार वाचस्पति मिश्रने नहीं, बल्कि वाचस्पति मिश्र स्वयं उन व्याख्यानोंको उद्योतकरका मत बतलाते हैं । विद्यानन्दने ७८ १. 'विद्यानन्दका समय' अनेकान्त वर्ष ६, किरण ६-७ । २. यथा - (क) 'त्रिविधमिति । अन्वयी व्यतिरेकी अन्वयव्यतिरेकी च । तत्रान्वयव्यतिरेकी विवक्षिततज्जातीयोपपत्ती विपक्षावृत्तिः, यथा अनित्यः शब्दः सामान्यविशेषवत्वे सत्यस्मदादिबाह्यकरणप्रत्यक्षत्वात्, घटवदिति । 1' पृष्ठ ४६ । (ख) ' अथवा त्रिविधमिति । लिङ्गस्य प्रसिद्ध सद्सन्दिग्धतामाह । प्रसिद्धमिति पक्षे व्यापकम्, सदिति सजातीयेऽस्ति, असन्दिग्धमिति सजातीयाविनाभावि । - पृष्ठ ४९ । ( ग ) ' अथवा त्रिविधमिति नियमार्थम्, अनेकधा भिन्नस्यानुमानस्य त्रिविधेन पूर्ववदादिना संग्रह इति नियमं दर्शयति । - पृष्ठ ४९ ॥ ३. यथा— 'तदेवं स्वयमतेन सूत्र व्याख्याय भाष्यकृन्मतेन व्याचष्टे । - पृ० १७४, 'स्त्रमतेन व्याख्यान्तरमाह अथवा ' ।' पृष्ठ १७८, 'त्रिविधपदस्य तात्पर्यान्तरमाह अथवेति । - पृष्ठ १७९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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