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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका सिद्धान्तोंका विद्यानन्दने नामोल्लेख और बिना नामोल्लेखके अपने प्रायः सभी ग्रन्थोंमें निरसन किया है। कुमारिल भट्ट और प्रभाकरका समय ईसाकी सातवीं शताब्दी (ई० ६२५ से ६८०) है । अतः विद्यानन्द ई० सन् ६८० के पश्चाद्वर्ती हैं।
४. कणादके वैशेषिकसूत्र, और वैशेषिकसूत्रपर लिखे गये प्रशस्तपादके' प्रशस्तपादभाष्य तथा प्रशस्तपादभाष्यपर भी रची गई व्योमशिवाचार्यकी व्योमवती टीकाका ग्रन्थकारने प्रस्तुत आप्तपरीक्षा आदिमें आलोचन किया है। व्योमशिवाचार्यका समय ई. सन्की सातवीं शताब्दीउत्तरार्ध ( ई. ६५० से ७०० तक बतलाया जाता है। अतः विद्यानन्द ई. सन् ७०० के पूर्ववर्ती नहीं हैं ।
५. धर्मकीत्ति और उनके अनुगामी प्रज्ञाकर तथा धर्मोत्तरका अष्टसहस्री (पृ. ८१, १२२. २७८), प्रमाणपरीक्षा (पृ ५३) आदिमें नामोल्लेखपूर्वक खण्डन किया गया है। धर्मकीर्तिका ई० ६२५, प्रज्ञाकरका ई. ७०० और धर्मोत्तरका ई. ७२५ अस्तित्वकाल माना जाता है । अतः आ० विद्यानन्द ई० सन् ७२५ के पश्चात्कालीन हैं।
६. अष्टसहस्री (पृ. १८ )में मण्डनमिश्रका नामोल्लेखपूर्वक आलोचन किया गया है और श्लोकवात्तिक (पृ. ९४ )में मण्डनमिश्रके 'ब्रह्मसिद्धि ग्रन्थके 'आहुविधातृ प्रत्यक्षं' पद्य वाक्यको उद्धृत करके कदर्थन किया गया है। शङ्कराचार्यके प्रधान शिष्य सुरेश्वरके बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवात्तिक (३-५) से 'यथा विशुद्धमाकाशं', 'तथेदममलं ब्रह्म' ये दो ( ४३, ४४३) पद्य अष्टसहस्री ( पृ० ९३ ) में बिना नामोल्लेखके और अष्टसहस्री (पृ० १६१)में यदुक्तं बृहदारण्य कवात्तिके' शब्दोंके उल्लेखपूर्वक उक्त वार्तिकग्रन्थसे ही 'आत्मापि सदिदं ब्रह्म', 'आत्मा ब्रह्मति परोक्ष्य-' ये दो पद्य उद्धृत किये गये हैं । मण्डनमिश्रका* ई० ६७० से ७२० और सुरेश्वर
१. ये ईसाकी चौथी शतोके विद्वान् माने जाते हैं। २. पृ० २४, २५ में व्योमवती पृ० १४९ के 'द्रव्यत्वोपलक्षित समवायको द्रव्य
लक्षण' माननेके विचारका खंडन किया गया है। तथा इसी ग्रन्थके पृ०
१३८, १३९ पर समवायलक्षणका समस्त पदकृत्य दिया गया है । ३. प्रमेयक० मा० प्रस्ता० पृ० १३ । ४. देखो, वादन्यायका परिशिष्ट नं० १ । ५. देखो, बृहती द्वितीयभागकी प्रस्ता० ।
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