________________
प्रस्तावना
७३
वान् पार्श्वनाथ हैं। कपिलादिकमें अनाप्तता बतलाकर उन्हें इसमें आप्त सिद्ध किया गया है और उनके वीतरागित्व, सर्वज्ञत्व और मोक्षमार्गप्रणेतृत्व इन असाधारण गुणोंकी स्तुति को गई है ।
के पार्श्वनाथको लक्ष्य करके रचा गया होगा।' और यही आप मेरे पत्रके उत्तरमें अपने ११ अप्रैल १९४७ के पत्र में भी लिखते हैं। अपने उक्त ग्रन्थ ( पृष्ठ २२७ ) में, श्वेताम्बर मुनि शीलविजयजी की, (जिन्होंने वि० सं० १७३१-३२ में दक्षिगके तीर्थक्षेत्रोंकी वन्दना की थी और जिसका वर्णन उन्होंने अपनी 'तीर्थमाला' नामक पुस्तकमें किया है ) 'तीर्थमाला' पुस्तकके आधारसे दक्षिणके तीर्थोंका परिचय देते हुए श्रीपुरनगरके अन्तरीक्ष पार्श्वनाथके सम्बन्धमें मुनिजीद्वारा दी गई एक प्रचलित कथाको भी दिया है । उस कथाका सारांश यह है कि 'प्राचीन कालमें श्रीपुरनगरके एक कुएमें अतिशयवान् प्रतिमा डाल दी गई थी। इस प्रतिमाके प्रभावसे उस कुएके जलसे जब ‘एलगराय' का रोग दूर हो गया, तब अन्तरीक्ष प्रभु प्रकट हुए और उनकी महिमा बढ़ने लगी। पहले वह प्रतिमा इतनी अधर थी कि उसके नीचेसे एक सवार निकल जाता था, परन्तु अब केवल धागा हो निकल सकता है।' प्रेमीजीने वहाँ 'एलगराय' पर एक टिप्पणी भी दी है और लिखा है कि 'जिसे राजा 'एल' कहा जाता है, शायद वही यह ‘एलगराय' है। अकोलाके गेजेटियरमें लिखा है कि 'एल' राजाको कोढ़ हो गया था, जो एक सरोवरमें नहानेसे अच्छा हो गया। उस सरोवरमें ही अन्तरीक्ष की प्रतिमा थी और उसीके प्रभावसे ऐसा हुआ था।' आश्चर्य नहीं कि आ० विद्यानन्दस्वामीका अभिमत श्रीपुर प्रेमीजीके उल्लेखानुसार धारवाड़ जिलेका शिरूर ग्राम ही श्रीपुर हो । वर्जेस, कजन, हण्टर आदि अनेक पाश्चात्य लेखकोंने वेसिंग जिलेके 'सिरपुर' स्थानको एक प्रसिद्ध तीर्थ बतलाया है और वहाँ प्राचीन पार्श्वनाथका मन्दिर होनेकी सूचनाएं की हैं। कोई असम्भव नहीं कि वेसिंग जिलेका 'सिरपुर' ही विद्यानन्दका अभिमत श्रीपुर हो । श्रीपुरका 'शिरूर' हो जानेकी अपेक्षा 'सिरपुर' हो जाना ज्यादा संगत प्रतीत होता है। शक सं० ६९८ ( ई० ७७६ ) में पश्चिमी गंगवंशी राजा श्रीपुरुषके द्वारा श्रीपुरके जैनमन्दिरके लिये दान दिये जानेका उल्लेख करनेवाला एक ताम्रपत्र मिला है ( जैन सि० भा० भा० ४ किरण ३ पृष्ठ १५८ )। हो सकता है यह श्रीपुर विद्यानन्दका इष्ट श्रीपुर हो । जो हो, इतना निश्चित है कि श्रीपुरके पार्श्वनाथका पहले बड़ा माहात्म्य रहा है और इसीसे विद्यानन्द जैसे तार्किक वहाँ उनकी वन्दनार्थ गये और उनका यह महत्त्वपूर्ण स्तवन रचा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org