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प्रस्तावना
संगत है कि धारणा अपरनाम संस्कार स्मृतिका कारण है और यह स्पष्ट है कि आत्मा प्रत्येक पर्यायमें अनुस्यूत रहता है। यह नियम नहीं है कि जो प्रत्यक्षात्मक ज्ञान होता है वह सब तुरन्त नष्ट हो जाता है, क्योंकि अवधि और मनःपर्ययज्ञान प्रत्यक्षात्मक होते हुए भी आत्माका अन्वय रहनेसे नियत स्थिति तक स्थिर रहते हैं। यही बात धारणाकी है । वह अपने कारणभूत ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमविशेषकी अपेक्षासे न्यूनाधिक काल तक आत्मामें बनी रहती है। जैनवाङमयमें जिसे स्मृतिजनकरूपसे धारणा कहा गया है उसे हो वैशेषिक दर्शनमें स्मृतिजनकरूपसे भावनाख्य संस्कार कहा गया है। 'संस्कार' शब्द दूसरे दर्शनका पारिभाषिक शब्द है और धारणा जैनदर्शनका पारिभाषिक शब्द है उसका सर्वसाधारणपर अर्थ प्रकट करनेके लिये 'संस्कार इति यावत्' जैसे शब्दोंद्वारा उसे उसका पर्यायवाची सूचित किया जाता है। इतनी विशेषता है कि जैनदर्शनमें उसे ज्ञानात्मक बतलाया गया है क्योंकि उसका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। यदि वह ज्ञानात्मक न हो तो ज्ञानात्मक स्मृति आदिको वह उत्पन्न नहीं कर सकता । अतः वादि देवसूरिकी आलोचना सङ्गत प्रतीत नहीं होती।
६. हेमचन्द्र-ये व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त, योग और न्यायके प्रखर विद्वान् थे। इन्होंने इन सभी विषयोंपर विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। प्रमाणमीमांसा इनकी न्यायविषयक विशद रचना है। इसके सूत्र और उनकी स्वोपज्ञटीका दोनों ही सुन्दर और बोधप्रद हैं। न्यायके प्राथमिक अभ्यासीके लिये परीक्षामुख और न्यायदीपिकाकी तरह इसका भी अभ्यास उपयोगी है । यह प्रमेयरत्नमालाकी कोटिका न्यायग्रन्थ है । इसमें प्रमेयकमलमार्तण्ड और प्रमेयरत्नमालाका शब्दशः और अर्थशः अनुसरण है ही किन्तु साथमें विद्यानन्दके प्रमाणपरीक्षा, तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक आदि ग्रन्थोंका भी प्रभाव है। ये वि० की १२वीं, १३वीं (वि० सं० ११४५से वि० सं० १२२९, ई० सन् १०८९ से ई० सन् ११७३) शतीके विद्वान् माने जाते हैं।
१. ज्ञानको अमुक काल तक स्थिर रखना वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमविशेषका
कार्य है, यह स्पष्ट है। २. 'भावनासंज्ञक(संस्कार)स्त्वात्मगुणो दृष्टश्रु तानुभूतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञान.
हेतुर्भवति""।-प्रशस्त० भा० पृ० १३६ । ३. देखो, प्रमाणमीमांसाकी प्रस्तावना ।
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