________________
आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका गुर्वावली भी दी है और उसमें अपना विद्यागुरु माणिक्यनन्दिको बतलाया है तथा उन्हें महापण्डित और अपनेको उनका विद्याशिष्य प्रकट किया है। प्रशस्तिमें उन्होंने यह भी बतलाया है कि धारानगरी उस समय विद्वानोंके लिये प्रिय थी अर्थात् विद्याभ्यासके लिये विद्वान् दूर-दूरसे आकर वहाँ रहते थे और इसलिये वह विद्वानोंकी केन्द्र बनी हुई थी। प्रशस्तिगत वह गुर्वावली इस प्रकार है
आ० कुन्दकुन्दकी आम्नायमें
पद्मनन्दि वृषभनन्दि (सम्भवतः चतुमुखदेव)
रामनन्दि माणिक्यनन्दि (महापण्डित)
नयनन्दि (सुदंसणचरिउके कर्ता) आ० प्रभाचन्द्र इन नयनन्दि ( ई० १०४३ ) के समकालीन हैं, क्योंकि उन्होंने भी धारा ( मालवा ) में रहते हुए राजा भोजदेवके राज्यमें आ० माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखपर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक विस्तृत टीका लिखी है और प्रायः शेष कृतियाँ भोजदेवरे (वि० सं० १०७५ से १११०, ई० सन् १०१८ से १०५३ ) के उत्तराधिकारी धारानरेश जयसिंहदेवके राज्यमें बनाई हैं। इसका मतलब यह हुआ कि प्रमेयकमलमार्तण्ड १. देखो, प्रमेयक. मा. का समाप्ति-पुष्पिकावाक्य । २. श्रीचन्द्रने महाकवि पुष्पदन्तके महापुराणका टिप्पण भोजदेवके राज्यमें वि० सं०
१०८० में रचा है । तथा भोजदेवके वि० सं० १०७६ और वि० सं० १०७९ के दो दानपात्र भी मिले हैं । अतः भोजदेवकी पूर्वावधि वि० सं० १०७५ होना चाहिए और उनकी मृत्यु वि० सं० १११० के लगभग सम्भावना की जाती है, क्योंकि भोजदेवके उत्तराधिकारी जयसिंहदेवका वि० सं० १११२ का एक दानपत्र मिला है। देखो विश्वेश्वरनाथ रेउकृत 'राजाभोज' पृ० १०२-१०३। इसलिये उनकी उत्तरावधि वि० सं० १११० है और इस तरह राजा भोजदेवका समय वि० सं० १०७५ से १११० ( ई० सन् १०१८
से ई० १०५३ ) माना जाता है । ३. ये वि० सं० १११२ (ई० १०५५) के आसपास राजगद्दीपर बैठे थे। देखो,
रेउ कृत 'राजा भोज' पृ० १०३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org