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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका (ख) विद्यानन्द प्रमाणपरीक्षामें ही प्रामाण्यकी ज्ञप्तिको लेकर निम्न प्रतिपादन करते हैं:
प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात्परोऽन्यथा ।'-पृ० ६३ । माणिक्यनन्दिभी परीक्षामुखमें यही कथन करते हैं:'तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ।'–१-१३ । (ग) विद्यानन्द 'योग्यता' की परिभाषा निम्न प्रकार करते हैं:
'योग्यताविशेषः पुनः प्रत्यक्षस्येव स्वविषयज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेष एव ।'-प्रमाणप० ५० ६७ ।
'स चात्मविशुद्धिविशेषो ज्ञानावरणवीर्यान्तराक्षयोपशमभेदः स्वार्थप्रमित्तौ शक्तिर्योग्यतेति च स्याद्वादिभिरभिधीयते ।'-प्रमाणप० पृ० ५२ । 'योग्यता पुनर्वेदनस्य स्वावरणविच्छेदविशेष एव' ।
-तत्त्वार्थश्लोक० पृ० २४९ । माणिक्यनन्दि भी योग्यताकी उक्त परिभाषाको अपनाते हुए लिखते हैं:'स्वा वरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति ।'
-परीक्षामु० २-३ । (घ) ऊहाज्ञानके सम्बन्धमें विद्यानन्द कहते हैं:
"तथोहस्यापि समुद्भूतो भूयःप्रत्यक्षानुलम्भसामग्री बहिरङ्गनिमित्तभूताऽनुमन्यते तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वादूहस्य ।"-प्रमाणप० पृ० ६७ । माणिक्यनन्दि भी यही कहते हैं:
"उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानसमूहः । इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च । यथाऽग्नावेव धूमस्तभावे न भवत्येवेति च।
-परीक्षा० ३-११, १२, १३ ॥ (ङ) विद्यानन्दने अकलङ्क आदिके द्वारा प्रमाणसंग्रहादिमें प्रतिपादित हेतुभेदोंके संक्षिप्त और गम्भीर कथनका प्रमाणपरीक्षामें जो विशद भाष्य किया है उसका परीक्षामुखमें प्रायः अधिकांश शब्दशः और अर्थशः अनुसरण है।
इससे ज्ञात होता है कि माणिक्यनन्दि विद्यानन्दके उत्तरकालीन हैं और उन्होंने विद्यानन्दके ग्रन्थोंका भी खूब उपयोग किया है।
२. वादिराजसूरि ( ई० स० १०२५ ) ने न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिर्णय ये दो न्यायके ग्रन्थ बनाये हैं और यह भी सुनिश्चित है कि
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