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प्रस्तावना
३७
यथा वस्त्रादि । कार्यं चेदं प्रकृतम्, तस्माद् बुद्धिमन्निमित्तकम् । योऽसौ बुद्धिमांस्तद्धेतुः स ईश्वर इति प्रसिद्ध साधनं तदनादित्वं साधयत्येव । ............इति वैशेषिकाः समभ्यमंसत ।'
अब उनका उत्तरपक्ष देखिये,
'तेऽपि न समञ्जसवाचः तनुकरणभुवनादयो बुद्धिमन्निमित्तका इति पक्षस्य व्यापकानुपलम्भेन बाधितत्वात् कार्यत्वादिहेतोः कालत्ययापदिष्टवाच्च । तथा हितन्वादयो न बुद्धिमन्निमित्तकाः तदन्वयव्यतिरेकानुपलम्भात् । यत्र यदन्वयव्यतिरेकानुपलम्भस्तत्र न तन्निमित्तकत्वं दृष्टम् यथा घटघटीशरावोदञ्चनादिषु कुवि - न्दाद्यन्वयव्यतिरेकाननुविधायिषु न कुविन्दादिनिमित्तकत्वम्, बुद्धिमदन्वयव्यतिकानुपलम्भश्च तन्वादिषु तस्मान्न बुद्धिमन्निमित्तकत्वमिति व्यापकानुपलम्भः तत्कारणकत्वस्य तदन्वयव्यतिरेकोपलम्भेन व्याप्तत्वात् कुलालकारणकस्य घटादेः कुलालान्वयव्यतिरेकोपलम्भप्रसिद्ध : सर्वत्र बाधकाभावात्तस्य तद्वयापकत्वव्यवस्थानात् । न चायमसिद्धः तन्वादीनामीश्वरव्यतिरेकानुपलम्भस्य प्रमाणसिद्धत्वात् । स हि न तावत्कालव्यतिरेकः शाश्वतिकत्वदीश्वरस्य कदाचिदभावासम्भवात् । नापि देशव्यतिरेकः, तस्य विभुत्वेन क्वचिदभावानुपपत्तेरीश्वराभावे कदाचित्क्वचित्तन्वा - दिकार्याभावानिश्चयात् । '
उत्तर पक्ष में पूर्वपक्षकी तरह वही शैली और वही पञ्चावयववाक्यप्रयोग सर्वत्र मिलेंगे । हाँ, बौद्धों आदिके पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष में उनकी मान्यतानुसार द्वयवयव आदि वाक्यप्रयोग मिलेंगे। विद्यानन्दका वैशेषिक दर्शनका अभ्यास वस्तुतः विशेष प्रतीत होता है और उसको विशदतम छटा उनके सभी ग्रन्थोंमें उपलब्ध होती है । वे जब मीमांसादर्शनकी भावना-नियोग और वेदान्तदर्शन की विधिसम्बन्धी दुरूह चर्चाको अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक और अष्टसहस्रीमें विस्तारसे करते हैं तो उनका मीमांसा और वेदान्तदर्शनोंका गहरा और सूक्ष्म पाण्डित्य भी विदित हुए बिना नहीं रहता । जहाँ तक हम जानते हैं, जैनवाङमयमें यह भावनानियोग विधिको दुरवगाह चर्चा सर्वप्रथम तीक्ष्णबुद्धि विद्यानन्दद्वारा ही लाई गई है और इसलिये जैनसाहित्य के लिये यह उनकी एक अपूर्व देन है । मीमांसादर्शनका जैसा और जितना सबल खण्डन तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में पाया जाता है वैसा और उतना जैनवाङमयकी अन्य किसी भी उपलब्ध कृतिमें नहीं है । इससे हम विद्यानन्दके मीमांसादर्शन और वेदान्तदर्शन के अभ्यासको जान सकते हैं । न्याय, सांख्य और चार्वाक दर्शनकी विवेचना और उनकी समालोचनासे विद्यानन्दकी उन दर्शनोंकी विद्वत्ता भी भलीभाँति अवगत हो जाती है । उनका बौद्धशास्त्रोंका
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