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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका अतः जैनमार्ग तो पूर्ण नग्नताके आचारण और धारण करने में है। जब वे आहार ( भिक्षा ) के लिये जाते तो वे उसे रत्नत्रयकी आराधनाके लिये ही ग्रहण करते थे और इस बात का ध्यान रखते थे कि वह भिक्षाशुद्धिपूर्वक नवकोटि विशुद्ध हो और इस तरह वे रत्नत्रयकी विराधनासे बचे रहते थे। कदाचित् रत्नत्रयकी विराधना हो जाती तो उसका वे शास्त्रानुसार प्रायश्चित्त भी ले लेते थे। इस तरह मुनि विद्यानन्द रत्नत्रयरूपी भूरि भूषणोंसे सतत आभूषित रहते थे' और अपनी चर्याको बड़ी ही निर्दोष तथा उच्चरूपसे पालते थे। ईसाकी ११ वीं शताब्दीके विद्वान् आ० वादिराजने भी इन्हें न्यायविनिश्चयविवरण में एक जगह 'अनवद्यचरण' विशेषणके साथ समुल्लेखित किया है । यही कारण है कि मुनि-संघमें उन्हें श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था और आचार्य जैसे महान् उच्चपदपर भी वे प्रतिष्ठित थे। गुणपरिचय-दिग्दर्शन (क) दर्शनान्तरीय अभ्यास ___ यहाँ विद्यानन्दके कतिपय गुणोंका भी कुछ परिचय दिया जाता है । सबसे पहले उनके दर्शनान्तरीय अभ्यासको लेते हैं। आ० विद्यानन्द केवल उच्च चारित्राराधक तपस्वी आचार्य ही नहीं थे, बल्कि वे समग्र दर्शनोंके विशिष्ट अभ्यासी भी थे। वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, चार्वाक, सांख्य और बौद्धदर्शनोंके मन्तव्योंको जब वे अपने ग्रन्थोंमें पूर्वपक्ष के रूपमें जिस विद्वत्ता और प्रामाणिकतासे रखते हैं तब उससे लगने लगता है कि अमुक दर्शनकार ही अपना पक्ष उपस्थित कर रहा है। वे उसकी ओरसे ऐसी व्यवस्थित कोटि-उपकोटियाँ रखते हैं कि पढ़नेवाला कभी उकताता नहीं है
और वह अपने आप आगे खिंचता हुआ चला जाता है तथा फल जाननेके लिये उत्सुक रहता है। उदाहरणार्थ हम प्रस्तुत ग्रन्थके ही एक स्थलको उपस्थित करते हैं। प्रकट है कि वैशेषिकदर्शन ईश्वरको अनादि, सदामुक्त और सृष्टिकर्ता मानता है। विद्यानन्द उसकी ओरसे लिखते हैं :
__ 'नन्वीश्वरस्यानुपायसिद्धत्वमनादित्वात्साध्यते । तदनादित्वं च तनुकरणभुवनादौ निमित्तकारणत्वादीश्वरस्य । न चैदसिद्धम् । तथा हि-तनुकरणभुवनादिकं विवादापन्नं बुद्धिमन्निमित्तकम्, कार्यत्वात् । यत्कार्यं तद्बुद्धिमन्निमित्तकं दृष्टम्, १. ‘स जयतु विद्यानन्दो रत्नत्रयभूरिभूषणः सततम्'-आप्तप० टोका प्रशः
पद्य ३ । २. न्याय वि० लि० पत्र ३८२ ।
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