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________________ आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका [ कारिका ११५ दृष्टकारणसिद्धेः । भावकर्माणि पुनश्चेतन्यपरिणामात्मकानि क्रोधाद्यात्मपरिणामानां क्रोधादिकर्मोदय निमित्तानामौदयिकत्वेऽपि कथञ्चिदात्मनोऽनर्थान्तरत्वाच्चिद्रपत्वाविरोधात् । ज्ञानरूपत्वं तु तेषां विप्रतिषिद्धम्, ज्ञानस्यौदयिकत्वाभावात् । $ २९८ ' धर्माधर्मयोः कर्मरूपयोरात्मगुणत्वान्नौदयिकत्वम् । नापि पुद्गल परिणामात्मकत्वमिति केचित् ; तेऽपि न युक्तिवादिनः; कर्मणामात्मगुणत्वे तत्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वायोगात्, सर्वदाऽऽत्मनो बन्धानुपपत्तेर्मुक्तिप्रसङ्गात् । न हि यो यस्य गुणः स तस्य पारतन्त्र्यनिमित्तम्, ३२८ कारणोंमें व्यभिचार होनेसे अदृष्टकारणको सिद्धि होती है । तात्पर्य यह कि जो पौद्गलिक द्रव्यकर्म हैं और जो ज्ञानावरणादिरूप हैं वे ज्ञानदर्शनादि आत्मगुणों के घातक हैं और अज्ञान-अदर्शन आदि दोषोंको उत्पन्न करते हैं । इन दोषरूप कार्योंसे उन ज्ञानावरणादि पौद्गलिक द्रव्यकर्मोंका अनुमान होता है, क्योंकि जो कार्य होता है वह कारणके बिना नहीं होता और चूँकि कार्य अज्ञानादि हैं, इसलिये उनके भी कारण होने चाहिये और जो उनके कारण हैं वे ज्ञानावरणादि कर्म हैं । अन्य दृष्टकारणोंमें व्यभिचार देखनेसे सर्वत्र अदृष्ट ( अतीन्द्रिय ) कारणकी सिद्धि की जाती है । इस प्रकारसे ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म सिद्ध होते हैं । भावकर्म चैतन्यपरिणामस्वरूप हैं, क्योंकि क्रोधादिकर्मों के उदयसे होनेवाले क्रोधादि आत्मपरिणाम यद्यपि औदयिक हैं तथापि वे कथंचित् आत्मा अभिन्न हैं और इसलिये उनके चैतन्यरूपताका विरोध नहीं है । लेकिन ज्ञानरूपता तो उनके नहीं है, क्योंकि ज्ञान औदयिक ( कर्मोदयजन्य ) नहीं है | अतः क्रोधादि आत्मपरिणाम आत्मासे कथंचित् अभिन्न होनेसे चैतन्यपरिणामात्मक हैं । $ २९८. शंका - कर्म धर्म और अधर्म रूप हैं और वे आत्माके गुण हैं, इसलिये वे औदधिक नहीं हैं और न पुद्गलपरिणामरूप हैं । तात्पर्य यह कि जो धर्म-अधर्म ( अदृष्ट ) रूप कर्म हैं वे आत्माका गुण हैं । अतएव उन्हें औदयिक अथवा पुद्गलपरिणामात्मक मानना उचित नहीं है ? समाधान- आपका यह कथन युक्तिपूर्ण नहीं है, क्योंकि यदि कर्म आत्माके गुण हों तो वे आत्माकी परतन्त्रतामें कारण नहीं हो सकते और इसतरह आत्मा कभी भी बन्ध न हो सकनेसे उसके मुक्तिका प्रसंग 1. मुब 'ननु' इत्यधिकः पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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