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कारिका ११५] अर्हत्कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धि
३२७ ६ २९७. ननु च ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणामेवानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यलक्षणजीवस्वरूप'घातित्वापारतन्त्र्यनिमित्तत्वं न पुनर्नामगोत्रसद्वद्यायुषाम्, तेषामात्मस्वरूपाघातित्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वासिद्धेरिति पक्षाव्यापको हेतुः, वनस्पतिचैतन्ये स्वापवत्, इति चेत; न; तेषामपि जीवस्वरूपसिद्धत्वप्रतिबन्धित्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वोपपत्तेः । कथमेवं तेषामघातिकर्मत्वम् ? इति चेत्, जीवन्मुक्तिलक्षणपरमार्हन्त्यलक्ष्मीघातित्वा भावादिति ब्रूमहे । ततो न पक्षाव्यापको हेतुः। नाप्यन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयविकल: पुद्गलपरिणामात्मकत्व साध्यमन्तरेण पारतन्त्र्यनिमित्तत्वस्य साधनस्यानुपपत्तिनियमनिर्णयात् । तानि च स्वकार्येण यथानाम प्रतीयमानेनानुमीयन्ते, दृष्टकारण व्यभिचाराद
२९७. शंका-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिकर्म ही अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्यरूप जीवके स्वरूपघातक होनेसे परतन्त्रताके कारण हैं। नाम, गोत्र, वेदनीय और आयु ये चार अघाति कर्म नहीं, क्योंकि वे जीवके स्वरूपघातक नहीं हैं। अतः उनके परतन्त्रताकी कारणता असिद्ध है और इसलिये हेतु पक्षाव्यापक है, जैसे वनस्पतिमें चैतन्य सिद्ध करनेके लिये प्रयुक्त किया गया 'स्वाप' ( सोनारूप क्रियाविशेष ) हेतु ?
समाधान-नहीं, क्योंकि नामादि अघाति कर्म भी जीवके स्वरूपसिद्धपनेके प्रतिबन्धक हैं और इसलिये उनके भी परतन्त्रताकी कारणता उपपन्न है।
शंका-यदि ऐसा है तो फिर उन्हें अघाति कर्म क्यों कहा जाता है ? __समाधान-वे जीवन्मुक्तिरूप उत्कृष्ट आर्हन्त्यलक्ष्मी-अनन्तचतुष्टयादि विभूतिके घातक नहीं हैं और इसलिये उन्हें हम अघातिकर्म कहते हैं। अतः हेतु पक्षाव्यापक ( भागासिद्ध ) नहीं है। और न अन्यथानुपपत्तिनियम-अविनाभावरूप व्याप्तिके निश्चय रहित है, क्योंकि पुद्गलपरिणामख्य साध्यके बिना परतन्त्रतामें कारणतारूप साधनके न होनेका अविनाभावनियम निर्णीत है। तथा वे जिसका जो नाम है उस नामसे प्रतीत होनेवाले अपने कार्यद्वारा अनुमान किये जाते हैं, क्योंकि दृष्ट
1. द 'लक्षणस्वरूप' । 2. मु स प 'घातिकत्वा' । . 3. मुपद परिणामात्मकसाध्य' ।
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