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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ११२ संयतसम्यग्दृष्टयादिगुणस्थानविशेषेषु प्रमाणतो निश्चीयते, तस्मात्परमात्मनि तस्य परमः1 प्रकर्षः सिद्धयतीत्यवगम्यते। 'दुःखादिप्रकपेण व्यभिचारः; इति चेत्, न; दुःखस्य सप्तमनरकभूमौ नारकाणां परमप्रकर्षसिद्धः । सर्वार्थसिद्धौ देवानां सांसारिकसुखपरमप्रकर्षवत् । एतेन क्रोधमानमायालोभानां तारतम्येन व्यभिचारशङ्का निरस्ता, तेषामभव्येषु मिथ्यादृष्टिषु च परमप्रकर्षसिद्धेः। तत्प्रकर्षो हि परमोऽनन्तानुबन्धित्वलक्षणः, स च तत्र प्रसिद्धः, क्रोधादीनामनन्तानुबन्धिनां तत्र सद्भावात् । ज्ञानहानिप्रकर्षेण व्यभिचार इति चेत्, न तस्यापि क्षायो
निर्जरारूप कर्मों के विपक्षका तारतम्यका प्रकर्ष असंयतसम्यग्दृष्टि आदि गणस्थानविशेषोंमें प्रमाणसे निश्चित है, इस कारण परमात्मामें उसका परमप्रकर्ष सिद्ध है, ऐसा निश्चयसे जाना जाता है ।
शंका-दुःखादिके प्रकर्षके साथ उक्त हेतु व्यभिचारी है, अतः वह अभिमत साध्यका साधक नहीं हो सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि दुःखका परमप्रकर्ष सातमी नरकपृथ्वीमें नारकी जीवोंके सिद्ध है, जैसे सर्वार्थसिद्धिमें देवोंके सांसारिक सुखका परमप्रकर्ष प्रसिद्ध है। इस कथनसे क्रोध, मान, माया और लोभके तारतम्यके साथ व्यभिचार होनेकी शंका भी निराकृत हो जाती है, क्योंकि उनका अभव्यों और मिथ्यादष्टियोंमें परमप्रकर्ष सिद्ध है। प्रकट है कि उन (क्रोधादिकों) का परमप्रकर्ष अनन्तानुबन्धितारूप है और वह उन ( अभव्यों तथा मिथ्यादृष्टियों) में मौजद है, क्योंकि उनमें अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषाएँ पायी जाती हैं।
शंका-ज्ञानहानिके प्रकर्षके साथ हेतु अनैकान्तिक है ?
समाधान नहीं; क्योंकि क्षायोपशमिकरूप ज्ञानका भी घटने रूपसे प्रकर्ष होता हुआ केवलीमें परम अपकर्ष अर्थात् सर्वथा प्रध्वंस प्रसिद्ध है
और इसलिये क्षायोपशमिक ज्ञानकी हानिके प्रकर्षके साथ हेतु अनैकान्तिक नहीं है। और क्षायिक ज्ञानको तो हानि ही उपलब्ध नहीं है, क्योंकि वह असम्भव है। तब उसका प्रकर्ष कैसे ? जिसके साथ व्यभिचारकी शंका
1. द 'परमप्रकर्षः' । 2. अत्र 'दुःखप्रकर्षण' इति पाठेन भाव्यम्, 'दुःखस्य' इत्युत्तरग्रन्थेन
तस्य सङ्गतिप्रतीतेः प्रमेयकमलमार्तण्डादौ [ पृ० २४५ ] च तथैवोपलब्धेः-सम्पा०
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