SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका अभिलाषा रहती थी। ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न होनेके कारण वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि वैदिक दर्शनोंका कुमार अवस्थामें ही उन्होंने अभ्यास कर लिया था। इसके अलावा, वे बौद्धदर्शनके मन्तव्योंसे विशेषतया दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर आदि बौद्ध विद्वानोंके ग्रन्थोंसे भी परिचित हो चुके थे। इसी बीचमें समय-समयपर होनेवाले ब्राह्मण, बौद्ध और जैन विद्वानोंके शास्त्रार्थोंको देखने और उनमें भाग लेनेसे उन्हें यह भी जान पड़ा कि अनेकान्त और स्याद्वादसम्बन्धी जैन विद्वानोंको युक्तियाँ एवं तर्क अत्यन्त सबल और अकाटय हैं और इसलिये स्याद्वाददर्शन ही वस्तुदर्शन है। फिर क्या था, उन्हें जैनदर्शनको विशेष जाननेकी भी तोव आकांक्षा हुई और स्वामी समन्तभद्रका देवागम, अकलङ्कदेवकी अष्टशती, आचार्य उमास्वाति (श्रीगृद्धपिच्छाचार्य) का तत्त्वार्थसूत्र और कुमारनन्दिका वादन्याय आदि जैनदार्शनिक ग्रन्थ उनके हाथ लग गये। परिणामस्वरूप विद्यानन्दने जैनदर्शन अंगोकार कर लिया और नन्दिसंघके' किसी अज्ञातनाम जैनमुनिद्वारा जैनधर्म तथा जैनसाधुकी दीक्षा ग्रहण कर ली। प्रतीत होता है कि विद्यानन्द अब तक गृहस्थाश्रममें प्रविष्ट नहीं हुए थे और ब्रह्मचर्यपूर्वक रह रहे थे, क्योंकि प्रथम तो वे अभीतक लगभग अठारह-बीस वर्ष के ही हो पाये थे और विद्याध्ययनमें ही लगे हुए थे। दूसरे, उन्होंने जिन नव (९) महान दार्शनिक ग्रन्थोंकी रचना की है उनको देखकर हम ही नहीं, कोई भी विद्यारसिक यह अनुमान कर सकता है कि वे अखण्ड ब्रह्मचारी थे, क्योंकि अखण्ड ब्राह्म तेजके बिना इतने विशाल और सूक्ष्म पाण्डित्यपूर्ण एवं प्रखर विद्वत्तासे भरपूर ग्रन्थोंका प्रणयन सम्भव नहीं है। स्वामी वीरसेन और जिनसेन अखण्ड ब्रह्मचारी रहकर हो धवला, जयधवला जैसे विशाल और महान् ग्रन्थ बना सके हैं। दक्षिणी ब्राह्मणोंमें अब भी यह प्रथा मौजद है कि बच्चे के उपनयन और विद्याभ्यास संस्कारके बाद जब तक उसका विद्याभ्यास पूरा नहीं हो लेता तब तक वे उसका विवाह-पाणिग्रहण नहीं करते हैं। इस तथ्यको अथवा सम्प्रदायविशेषके रीति-रिवाजको जब हम सामने रखते हैं तो यह मालूम होता है कि कूमार विद्यानन्दका १. शकसं १३२० के उत्कीर्ण एक शिलालेख ( नं० १०५ ) में, नन्दिसंघके मुनियों में विद्यानन्दको भी गिनाया है और उनका वहाँ नन्द्यन्त नामोंवाले आचार्यों में प्रथम स्थान है । इससे जान पड़ता है कि विद्यानन्द नन्दिसंधमें दीक्षित हुए थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy