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________________ आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ११० यति। तच्च सिद्ध्यत्स्वविरुद्धं निःशेषज्ञत्वं निवर्तयतीति विरुद्धकार्योपलब्धिः, शीताभावे साध्ये धूमवत् । विरुद्धव्याप्तोपलब्धिर्वा । सर्वज्ञत्वेन हि विरुद्धमसर्वज्ञत्वम्, तेन च व्याप्तं वक्तस्वमिति । एतेन पुरुषत्वोपलब्धिविरुद्धव्याप्तोपलब्धिरुक्ता। सर्वज्ञत्वेन हि विरुद्धमसर्वज्ञत्वम्, तेन च व्याप्तं पुरुषत्वमिति । तथा च सर्वज्ञो यदि वक्ताऽभ्युपगम्यते पुरुषो वा तदाऽपि वक्तृत्वपुरुषत्वाभ्यां तदभावः सिद्ध्यतीति केचिदाचक्षते। २७५. तदेतदप्यनुमानद्वितयं त्रितयं वा परैः प्रोक्तं न सर्वज्ञस्य बाधकम्, अविनाभावनियमनिश्चयस्यासम्भवात् । हेतोविपक्षे बाधकप्रमाणाभावात् । असर्वज्ञे हि साध्ये तद्विपक्षः सर्वज्ञ एव तत्र च प्रकृतस्य हेतार्न बाधकमस्ति। विरोधो बाधक इति चेत्, न, सर्वज्ञ [त्व ] स्य वक्तृत्वेन विरोधासिद्धेः। तस्य तेन विरोधो हि सामान्यतो विशेषतो करनेपर वह अपने कार्य अल्पज्ञताको सिद्ध करता है और वह (अल्पज्ञता) सिद्ध होती हई अपनेसे विरुद्ध सम्पूर्णज्ञानरूप सर्वज्ञताका अभाव करती है। इस तरह यह विरुद्धकार्योपलब्धि हेतु है, जैसे शीतका अभाव सिद्ध करनेमें धून । अथव', विरुद्धव्याप्तोपलब्धि हेतु है। निःसन्देह सर्वज्ञतासे विरुद्ध असर्वज्ञता है और उसके साथ वक्तापना व्याप्त है। इसी तरह पुरुषपनाकी उपलब्धि भी विरुद्धव्याप्तोपलब्धि हेतु है। स्पष्ट है कि सर्वज्ञतासे विरुद्ध असर्वज्ञता है और उससे व्याप्त पुरुषपना है। अतएव यदि सर्वज्ञको वक्ता अथवा पुरुष स्वीकार करते हैं तो वक्तापना और पुरुषपनाद्वारा उसका अभाव सिद्ध होता है ? २७५. समाधान-ये दोनों अथवा तीनों अनुमान भी, जो सर्वज्ञका अभाव करनेके लिये दूसरोंद्वारा कहे गये हैं, सर्वज्ञके बाधक नहीं हैं, क्योंकि उनमें अविनाभावरूप व्याप्तिका निश्चय असम्भव है। कारण, विपक्षमें हेतुका कोई बाधक प्रमाण नहीं है अर्थात् उपर्युक्त हेतु विपक्षव्यावृत्त नहीं हैं। स्पष्ट है कि यदि असर्वज्ञ साध्य हो तो उसका विपक्ष सर्वज्ञ ही है और वहाँ प्रकृत हेतुका कोई बाधक नहीं है। यदि कहा जाय कि सर्वज्ञता और वक्तापनाका विरोध है और इसलिये वह बाधक है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञताका वक्तापनके साथ विरोध असिद्ध है। बतलाइये, उसका (सर्वज्ञताका) उसके (वक्तापनके) 1. मु स 'निःशेषज्ञान' । 2. मु स 'यदि वा पुरुषस्तथापि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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