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________________ २९९. कारिका ११०] अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि [प्रत्यक्षस्य सर्वज्ञाबाधकत्वं प्रदर्शयति ] ६ २७३. यस्य धर्मादिसूक्ष्माद्यर्थाः प्रत्यक्षा भगवतोऽर्हतः सर्वज्ञस्यानुमानसामर्थ्यात्तस्य बाधकं प्रमाणं प्रत्यक्षादीनामन्यतमं भवेत्, गत्यन्तराभावात् । तत्र न तावदस्मदादिप्रत्यक्ष सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञस्य बाधकम्, तेन त्रिकालभुवनत्रयस्य सर्वज्ञरहितस्यापरिच्छेदात् । तत्परिच्छेदे तस्यास्मदादिप्रत्यक्षत्वविरोधात् । नापि योगिप्रत्यक्ष तबाधकम्, तस्य तत्साधकत्वात्, सर्वज्ञाभाववादिनां तदनभ्युपगमाच्च । नाप्यनुमानोपमाना पत्त्यागमानां सामर्थ्यात्सर्वज्ञस्याभावसिद्धिः, तेषां सद्विषयत्वात् प्रत्यक्षवत्। [अनुमानस्य सर्वज्ञाबाधकत्वप्रदर्शनम् ] २७४. स्यान्मतम्-नाहनिःशेषतत्त्ववेदो वक्तृत्वात्पुरुषत्वात्, ब्रह्मादिवत्, 'इत्यनुमानात्सर्वज्ञत्वनिराकृतिः सिद्ध्यत्येव । सर्वज्ञविरुद्धस्यासर्वज्ञस्य कार्यं वचनं हि तदभ्युपगम्यमानं स्वकार्य किञ्चिज्ञत्वं साध $ २७३. जिस सर्वज्ञ भगवान् अर्हन्तके धर्मादिक सूक्ष्मादि पदार्थ अनुमानके बलसे प्रत्यक्ष सिद्ध हैं उमका बाधकप्रमाण प्रत्यक्षादिमेंसे हो कोई होना चाहिये, क्योंकि और तो कोई बाधक हो नहीं हो सकता । सो उनमें हम लोगों आदिका प्रत्यक्ष सब जगह और सब कालमें सर्वज्ञका बाधक ( सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करनेवाला ) नहीं है, क्योंकि वह तीनों कालों और तोनों जगतोंको सर्वज्ञरहित नहीं जानता है। कारण, हमारा प्रत्यक्ष परिमित क्षेत्र और परिमित काल अर्थात् सम्बद्ध और वर्तमान अर्थको हो जानता है तब वह यह कैसे जान सकता है कि सर्वज्ञ तीनों कालों और तीनों लोकोंमें कहीं नहीं है ? अर्थात नहीं जान सकता है। यदि उनको जनता है तो वह हम लोगों आदिका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । योगीप्रत्यक्ष भी सर्वज्ञका बाधक नहीं है, क्योंकि वह उसका साधक है। दूसरे, सर्वज्ञाभाववादी उसे मानते भी नहीं है, इसलिये भी वह बाधक नहीं हो सकता। अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और आगम इनसे भी सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि ये सभी सद्भावको विषय करते हैं, जैसे प्रत्यक्ष । $२७४. शंका-'अरहन्त सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है, पुरुष है, जैसे ब्रह्मा वगैरह।' इस अनुमानसे सर्वज्ञका अभाव सिद्ध होता है । प्रकट है कि सर्वज्ञसे विरुद्ध अल्पज्ञका कार्य वचन है। सो उसे स्वीकार 1. म 'इत्याद्यनु' । 2. मु स 'किञ्चिज्जत्वं'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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