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कारिका ९७ ] अर्हत्सर्वज-सिद्धि
२९५ पर्यायविषयत्वम्, ततो मुख्यं तत्प्रत्यक्ष प्रसिद्धम्। सांव्यवहारिकं तु मनोऽक्षापेक्षं वैशद्यस्य देशतः सद्भावात्, इति न प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वसाधर्म्यमात्रात् धर्मादिसूक्षमाद्यर्थाविषयत्वं विवादाध्यासितस्य प्रत्यक्षस्य सिद्ध्यति यतः पक्षस्यानुमानबाधितत्त्वाकालात्ययापदिष्टो हेतुः स्यात् ।
[ अर्हत एव सार्वज्ञ्यमिति बाधक प्रमाणाभावद्वारा दृढयति ] $ २७२. तदेवं निरवद्याद्वैतोविश्वतत्त्वानां ज्ञाताऽर्हन्नेवावतिष्ठते। सकलबाधकप्रमाणरहितत्त्वाच्च । तथा हि
प्रत्यक्षमपरिच्छिन्दत् त्रिकालं भुवनत्रयम् ।। रहितं विश्वतत्त्वज्ञैर्न हि तद्बाधकं भवेत् ॥ ९७ ॥
है। तथा वह भी अशेष द्रव्य और पर्यावोंकी विषयताको साधती है और उससे अर्हन्तप्रत्यक्ष मुख्य प्रसिद्ध होता है। लेकिन सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मन और इन्द्रियसापेक्ष है, क्योंकि वह एकदेशसे स्पष्ट है । तात्पर्य यह कि प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-एक मुख्य प्रत्यक्ष और दूसरा सांव्यवहारिक । जो इन्द्रियों और मनकी अपेक्षाके बिना केवल आत्मामात्रको अपेक्षासे होता है वह मुख्य प्रत्यक्ष है। यह मुख्य प्रत्यक्ष भी तीन प्रकारका है१ अवधिज्ञान, २ मनःपर्ययज्ञान और ३ केवलज्ञान । इनमें अवधि और मन:पर्यय ये दो ज्ञान विशिष्ट योगियोंके होते हैं और केवलज्ञान अर्हन्त परमेष्ठीके होता है। यहाँ इसी केवलज्ञानरूप अर्हन्तप्रत्यक्षका विवेचन किया गया है और उसका साधन किया है। प्रत्यक्षका जो दूसरा भेद सांव्यवहारिक है वह इन्द्रियों तथा मनकी अपेक्षा लेकर उत्पन्न होता है और इसलिये वह पूर्ण निर्मल-स्पष्ट नहीं होता-केवल एकदेशसे स्पष्ट है। यहो प्रत्यक्ष हम लोगोंके होता है और अन्य प्राणियोंके होता है। अतः केवल 'प्रत्यक्ष' शब्दद्वारा कहा जाता' रूप सादृश्यसे विचारणीय प्रत्यक्ष (अहंन्तप्रत्यक्ष ) के धर्मादिक सूक्ष्मादि पदार्थोंको विषयताका अभाव सिद्ध नहीं होता, जिससे पक्ष अनुमानबाधित हो और हेतु कालात्ययापदिष्ट हो।
२७२. इस तरह प्रस्तुत निर्दोष हेतुसे विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता-सर्वज्ञ अर्हन्त ही व्यवस्थित होता है, क्योंकि उपयुक्त प्रकारसे उसके साधक प्रमाण मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त, उसके समस्त बाधक प्रमाणोंका अभाव भी है । सो ही आगे चउदह कारिकाओं द्वारा विस्तारसे कहते हैं:
'प्रत्यक्ष सर्वज्ञसे रहित तीनों कालों और तीनों लोकोंको नहीं जानता
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