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________________ २८१ कारिका ९४ ] अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि पयन् षड्भिः प्रमाणैः समस्तार्थज्ञानं वाऽनिवारयन् "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थमवगमयितुमलम्' [ शावरभा० १।१।२] इति स्वयं प्रतिपद्यमानः सक्ष्मान्तरितरार्थानां प्रमेयत्वमस्मत्प्रत्यक्षार्थानामिव कथमपह्नवीत, यतः साकल्येन प्रमेयत्त्वं पक्षाव्यापकमसिद्धं ब्रूयात् । २५८. ननु च प्रमातर्यात्मनि करणे च ज्ञाने फले च प्रमितिक्रियालक्षणे प्रमेयत्वासम्भवात्, कर्मतामापन्नेष्वेवार्थेषु प्रमेयेषु भावा भागासिद्धं साधनम, पक्षाव्यापकत्वादिति चेत; नैतदेवमः प्रमातुरात्मनः सर्वथाऽप्यप्रमेयत्वे प्रत्यक्षत इवानुमानादपि प्रमीयमाणत्वाभावप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षेण हि कर्मतयाऽऽत्मा न प्रतीयते, इति प्रभाकरदर्शनं न पुनः सर्वेणापि छह प्रमाणोंसे सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञानको अनिषिद्ध बतलाते हैं, 'वेद निश्चय ही हो गये, हो रहे और आगे होनेवाले, सूक्ष्म, व्यवहित तथा दूरवर्ती इत्यादि तरहके अर्थको जाननेमें समर्थ है' [ शावर भा. १।१।२] यह भी मानते हैं फिर वे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों के हमारे प्रत्यक्ष पदार्थों की तरह प्रमेयपनाका प्रतिषेध कैसे करते हैं ? जिससे प्रमेयपना हेतुको सम्पूर्णपनेसे पक्ष में अव्यापक बतलाकर असिद्ध कहें । तात्पर्य यह कि मीमांसक जब यह स्वीकार करते हैं कि समस्त पदार्थ प्रमाणसे व्यवस्थित हैं और उनका वेदके द्वारा ज्ञान होता है तो वे यह नहीं कह सकते कि सूक्ष्मादि पदार्थों में प्रमेयपना हेतु असिद्ध है-प्रमाणसे उनकी व्यवस्था करनेपर अथवा वेदद्वारा उनका ज्ञान माननेपर उनमें प्रमेयपना स्वतः सिद्ध हो जाता है, अतः प्रमेयपनाहेतु पक्षाव्यापकरूप असिद्ध नहीं है। $२५८. शंका-प्रमाता-आत्मामें, करण-ज्ञानमें और फलज्ञानमें, जो प्रमितिक्रिया रूप है, प्रमेयपना सम्भव नहीं है, क्योंकि कर्मरूप प्रमेयपदार्थों में ही प्रमेयपना है-वे ही प्रमाणके विषय हैं और इसलिये प्रमेयपना हेतु भागासिद्ध है, क्योंकि वह पूरे पक्षमें नहीं रहता है ? समाधान नहीं, क्योंकि प्रमाता-आत्मा यदि सर्वथा अप्रमेय होकिसी भी तरहसे वह प्रमेय न हो तो प्रत्यक्षकी तरह अनुमानसे भी वह प्रमित नहीं हो सकेगा अर्थात् जाना नहीं जा सकेगा। प्रकट है कि 1. षड्भिः प्रमाणः समस्तार्थज्ञानं वाऽनिवारयन्' इति व प्रतो नास्ति । 2. मु स प 'चोदनातो'। 3. 'ज्ञाने फले च' इति द प्रतौ नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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