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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९२-९४ - २५५. यदि पुननित्यत्वसामान्यं साध्यते सातिशयेतरनित्यत्व. विशेषस्य साधयितुमनुपक्रान्तत्वादिति मतम्, तदाऽन्तरिततत्त्वानां प्रत्यक्षसामान्यतोऽर्हत्प्रत्यक्षतायां साध्यायां न किञ्चिद्दोषमुत्पश्याम इति नाप्रसिद्धविशेषणः पक्षः साध्यशून्यो वा दृष्टान्तः प्रसज्यते ।
[हेतोः स्वरूपासिद्धत्वमुत्सारयति ] २५६. साम्प्रतं हेतोः स्वरूपासिद्धत्वं प्रतिषेधयन्नाहन चासिद्धं प्रमेयत्वं कात्य॑तो भागतोऽपि वा। सर्वथाऽप्यप्रमेयस्य पदार्थस्याव्यवस्थितः ॥९२॥ यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात्सर्वज्ञः केन वार्यते । इति ब्रुवन्नशेषार्थप्रमेयत्वमिहेच्छति ॥९३॥ चोदनातश्च निःशेषपदार्थज्ञानसम्भवे । सिद्ध मन्तरितार्थानां प्रमेयत्वं समक्षवत् ॥१४॥ $ २५७. सोऽयं मीमांसकः प्रमाणबलात्सर्वस्यार्थस्य व्यवस्थामभ्युआप लोगोंने शब्दको दूसरे कालतक ठहरनेवालारूप नित्य स्वीकार नहीं किया है।
६२५५. यदि कहा जाय कि शब्दमें नित्यतासामान्य सिद्ध करते हैं, क्योंकि सातिशय-निरतिशय नित्यताविशेषको सिद्ध करना प्रस्तुत नहीं है, तो अन्तरितपदार्थोंमें प्रत्यक्षसामान्यसे अर्हन्तकी प्रत्यक्षता सिद्ध करनेमें भी हम कोई दोष नहीं पाते हैं और इसलिये पक्ष अप्रसिद्धविशेषण तथा दृष्टान्त साध्यविकल प्रसक्त नहीं होता।
२५६. अब हेतुके स्वरूपासिद्ध दोषका प्रतिषेध करते हुए आचार्य कहते हैं___ 'प्रमेयपना हेतु न सम्पूर्णरूपसे असिद्ध है और न एकदेशरूपसे भी असिद्ध है, क्योंकि सर्वथा अप्रमेय कोई भी पदार्थ नहीं है-सभी पदार्थ किसी-न-किसी प्रमाणके विषय होनेसे प्रमेय हैं। “यदि छह प्रमाणोंसे सर्वज्ञ सिद्ध हो तो उसे कौन रोकता है" ऐसा कहनेवाला अशेष पदार्थोंको प्रमेय अवश्य स्वीकार करता है। और वेदसे अशेष पदार्थोंका ज्ञान सम्भव होने पर अन्तरित पदार्थोंके हमारे प्रत्यक्षपदार्थों की तरह प्रमेयपना सिद्ध हो जाता है।'
$२५७. मीमांसक प्रमाणसे समस्त अर्थकी व्यवस्था स्वीकार करते हैं,
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