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________________ २५० आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८६ परैरनभ्युपगमात् । न हि "किञ्चित्स्वस्मादुत्पद्यते' इति प्रेक्षावन्तोऽनुमन्यन्ते । 'संवेदनं स्वस्मादुत्पद्यते' इति तु दूरोत्सारितमेव । ततः कथं स्वात्मनि क्रियाविरोधो बाधकः स्यात् ? न च [ धात्वर्थलक्षणा क्रिया ] स्वात्मनि विरुद्ध्यत इति प्रतीतिरस्ति, तिष्ठत्यास्तेभवतीति धात्वर्थलक्षणाया क्रियायाः स्वात्मन्येव प्रतीतेः। तिष्ठत्यादेर्धातोरकर्मकत्वाकर्मणि क्रियाऽनुत्पत्तेः, स्वात्मन्येव कर्तरि स्थानादिक्रियेति चेत्, तहि भासतेधातोरकर्मकत्वात्कर्मणि क्रियाविरोधात्कर्तयेव प्रतिभासनक्रियाऽस्तु 'ज्ञानं प्रतिभासते' इति प्रतीतेः। सिद्धे च ज्ञानस्य स्वयं प्रतिभासमानत्वे सकलस्य वस्तुनः स्वतः प्रतिभासमानत्वं सिद्धमेव । 'सुखं स्वयंसे उत्पन्न होता है' यह स्वीकार नहीं करते हैं फिर 'ज्ञान स्वयंसे उत्पन्न होता है यह तो दूरसे त्यक्त ही समझना चाहिये अर्थात् वह बहुत दूरकी बात है। तात्पर्य यह कि हम यह मानते ही नहीं कि 'ज्ञान अपनेसे उत्पन्न होता है' क्योंकि उसके उत्पादक तो इन्द्रियादि कारण हैं और इसलिये ज्ञान में उत्पत्तिक्रियाका विरोध बाधक नहीं बतलाया जा सकता है। अतः ज्ञानके अपने स्वरूपको जानने में क्रियाका विरोध कैसे बाधक हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है। और 'धात्वर्थरूप क्रिया स्वात्मामें विरुद्ध है' यह प्रतीति नहीं है, क्योंकि 'ठहरता है', 'विद्यमान है', 'होता है' इत्यादि धात्वर्थरूप क्रियाओंकी स्वात्मा (अपने स्वरूप) में ही प्रतीति होती है। अगर कहें कि 'ठहरता है' इत्यादि धातुओंको अकर्मक होनेसे कर्ममें क्रिया उत्पन्न नहीं होती, किन्तु स्वात्मा कर्तामें ही. 'ठहरना' आदि क्रिया होती है तो 'भासित होता है' धातुको अकर्मक होनेसे कर्म में क्रिया नहीं बनती है और इसलिये कर्नामें ही प्रतिभासन. क्रिया हो, क्योंकि 'ज्ञान प्रतिभासित होता है' ऐसी प्रतीति होती है । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार 'ठहरता है' आदि धातुओंको अकर्मक होनेसे कर्ममें क्रिया नहीं बनती है और इसलिये कर्ता में ही स्थानादि क्रिया स्वीकार की जाती है उसीप्रकार 'भासित होता है' यह धातु भी अकर्मक है और इस कारण कर्म में क्रियाका विरोध है अतः प्रतिभासन क्रिया कर्नामें ही मानना चाहिये। इस प्रकार ज्ञानके स्वयं प्रतिभासमानपना सिद्ध हो जानेपर समस्त वस्तुसमूहके स्वतः प्रतिभासमानपना सिद्ध ही है। 1. प्राप्तमुद्रितामुद्रितसर्वप्रतिषु 'सर्वा क्रिया वस्तुनः' इति पाठ उपलभ्यते स च सम्यक् न प्रतिभाति, उत्तरग्रन्थेन सह तस्य सङ्गत्यनुपपत्तेः । -सम्पादक ।। 2 मुं स 'भासते तद्धातो' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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