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________________ २४९ कारिका ८६ ] सुगत-परीक्षा तस्य परेण ज्ञानेन प्रतिभास्यमानत्वात् । परस्य ज्ञानस्य च ज्ञानान्तरात्प्रतिभासने [ 'ज्ञानं ] प्रतिभासते' इति सम्प्रत्ययो न स्यात, संवेदनान्तरेण प्रतिभास्यत्वात्। तथा चानवस्थानान्न किञ्चित्संवेदनं व्यव. तिष्ठते। न च 'ज्ञानं प्रतिभासते इति प्रतीतिन्तिा , बाधकाभावात् । स्वात्मनि क्रियाविरोधो बाधक इति चेत्, का पुनः स्वात्मनि क्रिया विरुद्धयते ? ज्ञप्तिरुत्पत्तिर्वा ? न तावत्प्रथमकल्पना, स्वात्मनि ज्ञप्तेविरोधाभावात् । स्वयं प्रकाशनं हि ज्ञप्तिः, तच्च सर्यालोकादौ स्वात्मनि प्रतीयत एव, 'सर्यालोकः प्रकाशते', 'प्रदीपः प्रकाशते' इति प्रतीतेः। द्वितीयकल्पना तु न बाधकारिणी स्वात्मन्युत्पत्तिलक्षणायाः क्रियायाः होती है उसका विरोध आता है और 'प्रतिभास्यते' अर्थात् 'ज्ञान प्रतिभासित किया जाता है।' इस प्रकारके प्रत्ययका प्रसंग प्राप्त होता है क्योंकि वह दूसरे ज्ञानद्वारा प्रतिभास्य है-ज्ञय है। तथा दूसरे ज्ञानका भी अन्य तीसरे ज्ञानसे प्रतिभासन माननेपर 'ज्ञान प्रतिभामित होता है' यह प्रत्यय नहीं बन सकता है क्योंकि वह भी अन्य ज्ञानसे प्रतिभास्य हैस्वयं प्रतिभासित नहीं है और इसलिये 'ज्ञान प्रतिभासित किया जाता है' ऐसा प्रत्यय होनेका प्रसंग आवेगा। और ऐसी दशामें अनवस्था प्राप्त होनेसे कोई ज्ञान व्यवस्थित नहीं हो सकेगा। ___अपिच, 'ज्ञान प्रतिभासित होता है' यह जो प्रतोति होती है वह भ्रमात्मक नहीं है, कारण उसमें कोई बाधक नहीं है। यदि कहा जाय कि अपने आपमें क्रियाका विरोध है और इसलिये यह क्रिया-विरोध उक्त प्रतीतिमें बाधक है तो हम पूछते हैं कि अपने आपमें कौनसी क्रियाका "विरोध है ? ज्ञप्तिक्रियाका अथवा उत्पत्ति क्रियाका ? अर्थात् ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है अथवा अपनेसे उत्पन्न नहीं होता ? प्रथम कल्पना तो ठीक नहीं है, क्योंकि अपने आप में ज्ञप्ति (जानने) क्रियाका विरोध नहीं है। स्पष्ट है कि स्वयं प्रकाशनका नाम ज्ञप्ति है और वह सूर्यालोक आदि स्वात्मामें प्रतीत होता ही है-'सूर्यालोक प्रकाशित होता है', 'प्रदीप प्रकाशित होता है' यह प्रतीति स्पष्टतः देखी जाती है। दूसरी कल्पना तो बाधक हो नहीं है क्योंकि वेदान्ती और स्याद्वादी ज्ञानकी स्वयंसे उत्पत्ति स्वीकार नहीं करते हैं। प्रकट है कि विद्वज्जन 'कोई 1. मु स 'प्रतिभास मान'। 2. मुक 'ज्ञानान्तराप्रतिभास', मुब 'ज्ञानान्तरप्रतिभास' । 3. मु स 'सूर्यालोकनादौ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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