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कारिका ८५] सुगत-परीक्षा
२३९ $ २११. ननु च संवृत्तिरपि द्वेधा सादिरनादिश्च । सादिः स्वप्नसंवेदनादिः, सा बाध्यते । सुगतसंवेदनादिरनादिः, सा न बाध्यते संवृतित्वाविशेषेऽपीति चेत्, न; संसारस्याबाध्यत्वप्रसङ्गात्। स ह्यनादिरेव, अनाद्यविद्यावासनाहेतुत्वात्, प्रबाध्यते च मुक्तिकारणसामर्थ्यात् । अन्यथा कस्यचित्संसाराभावाप्रसिद्धिः ।
[संवेदनाद्वैताभ्युपगमे दूषणप्रदर्शनम् ] $ २१२. संवृत्त्या सुगतस्य वन्द्यत्वे च परमार्थतः किं नाम वन्द्य स्यात् ? संवेदनाद्वैतमिति चेत्, न; तस्य स्वतोऽन्यतो वा प्रतिपत्यभावादित्याह
बाधित है और असंगत है।
२११. योगाचार-बात यह है कि संवृत्ति दो प्रकारकी है-एक सादि और दूसरी अनादि । स्वप्नसंवेदनादि तो सादि संवृत्ति है, वह बाधित होती है और सुगतसंवेदनादि अनादि संवृत्ति है, वह बाधित नहीं होती। यद्यपि संवृत्ति दोनों हैं फिर भी उनमें उक्त ( सादि-अनादिका) भेद स्पष्ट है ? __ जैन-नहीं, इस तरह संसारकी अबाध्यताका प्रसंग आवेगा। स्पष्ट है कि संसार अनादि है, क्योंकि अनादि अविद्याकी वासनाका वह कारण है किन्तु मक्तिकारण-सम्यग्दर्शनादिकके सामर्थ्यसे बाधित-नाशित होता है। अन्यथा ( यदि संसारका उच्छेद न हो तो) किसीके संसारका अभाव प्रसिद्ध नहीं हो सकेगा।
$ २१२, दूसरे, यदि सुगत संवृत्तिसे वन्दनीय माना जाय तो परमार्थतः कौन वन्दनीय है ? यह आपको बतलाना चाहिये ।
योगाचार-परमार्थतः संवेदनाद्वैत वन्दनीय है।
जैन-नहीं, क्योंकि उसको न तो स्वयं प्रतिपत्ति होतो है और न किसी अन्य प्रमाणादिसे होती है। इस बातको आगे कारिकाद्वारा कहते हैं
1. मु स 'संवेदनाऽनादि' । 2. मुस'च' नास्ति । 3. मु स 'द्धः।
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