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आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका
संवृत्या विश्वतत्त्वज्ञः श्रेयोमार्गोपदेश्यपि । बुद्धो वन्द्यो न तु स्वप्नस्तादृगित्यज्ञचेष्टितम् ॥ ८५ ॥
$ २१०. ननु च सांवृतत्वाविशेषेऽपि सुगतस्वप्नयोः सुगत एव वन्द्यः, तस्य भूतस्वभावत्वाद्विपर्ययैरबाध्यमानत्वादर्थक्रियाहेतुत्वाच्च । न तु स्वप्नसंवेदनं वन्द्यम्, तस्य संवृत्त्याऽपि बाध्यमानत्वादद्भतार्थत्वाभावादर्थक्रिया हेतुत्वाभावाच्चेति चेत्; न; भूतत्वस वृतत्वयोविप्रतिषेधात् । भूतं हि सत्यं सांवृतमसत्यं तयोः कथमेकत्र सकृत्सम्भवः ? संवृत्तिसत्यं + भूतमिति चेत्, न तस्य विपर्ध्ययैरबाध्यमानत्वायोगात् स्वप्नसंवेदनादविशेषात् ।
'बुद्ध संवृत्तिसे सर्वज्ञ है और मोक्षमार्गका उपदेशक भी है, अतएव बुद्ध वन्दनीय है, किन्तु स्वप्न वन्दनीय नहीं है क्योंकि वह संवृत्तिसे भो सर्वज्ञ और मोक्षमार्गोपदेशक नहीं है, यह कथन भी अज्ञतापूर्ण है - अज्ञताका परिचायक है ।'
[ कारिका ८५
$ २१०. योगाचार - यद्यपि सुगत और स्वप्न दोनों सांवृत - काल्पनिक हैं तथापि उनमें सुगत ही वन्दनीय है क्योंकि वह भूतस्वभाव है, विपरीतोंसे अबाध्यमान है और अर्थक्रिया में हेतु है । किन्तु स्वप्नसंवेदन वन्दनीय नहीं है, क्योंकि वह संवृत्तिसे भी बाध्यमान है, अभूतार्थ है और अर्थक्रिया में हेतु नहीं है ?
जैन- नहीं, क्योंकि भूतत्व और सांवृतत्यमें विरोध है । प्रकट है कि भूत सत्यको कहते हैं और सांवृत असत्यको । तब वे एक जगह एक साथ कैसे सम्भव हैं ? तात्पर्य यह कि सुगतको जब आपने सांवृत स्वीकार कर लिया तब वह भूतस्वभाव कैसे और यदि वह भूतस्वभाव है तो सांवृत कैसे ? क्योंकि भूत सत्य को कहते हैं और सांवृत मिथ्याको । और सत्य तथा मिथ्या दोनों विरुद्ध हैं ।
योगाचार - संवृत्तिसत्यको भूत कहते हैं, अतः उक्त दोष नहीं है ? जैन - नहीं, क्योंकि सुगत विपरीतोंसे अबाध्यमान नहीं है - बाध्य - मान है और इसलिये स्वप्नसंवेदनसे उसमें कुछ विशेषता नहीं है । अतः संवृत्तिसत्यको भूत कहना एक नई और विलक्षण परिभाषा है जो युक्ति
1. द 'सांवृतत्त्वाविशेषित सुगत' मुस 'सवृत्त्वा' |
2. द ' वंद्यमिति चेन्न', स ' वंद्यमिति चेन्न पुस्तकान्तरे' ।
3. द ' हेतुत्वापायाच्चेतिभूतत्व सांवृत' । 4. मु 'संवृतिः सत्यं' ।
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