SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३६ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८४ प्रतिभासः किं न भवेत् ? वेद्याद्याकारप्रतिभासभेदेऽप्येकं संवेदनमशक्यविवेचनत्वादिति वदन्नपि सुखाद्यनेकाकारप्रतिभासेऽप्येक एवात्मा शश्वदशक्यविवेचनत्वादिति वदन्तं कथं प्रत्याचक्षीत ? यथैव हि संवेदनस्यैकस्य वेद्याद्याकारः संवेदनान्तरं 'नेतुमशक्यत्वादशक्यविवेचनाःसंवेदनमेकं तथाऽत्मनः सुखाद्याकारा शश्वदात्मान्तरं नेतुमशक्यत्वादशक्यविवेचना:कथमेक एवात्मा न भवेत् ? यद्यथा प्रतिभासते तत्तथैव व्यवहर्त्तव्यम, यथा वेद्याद्याकारात्मकैकसंवेदनरूपतया प्रतिभासमानं संवेदनम्, तथा च सुखज्ञानाद्यनेकाकारैकात्मरूपतया प्रतिभासमानश्चात्मा, तस्मात्तथा व्यवहतव्य इति नान्त: सुखाद्यनेकाकारात्मा प्रतिभासमानो निराकत्तुं शक्यते । भेदसे एक आत्मामें सुखादि भिन्नकारों का प्रतिभास क्यों न होवे ? योगाचार-हमारा कहना यह है कि वेद्यादि आकारोंके प्रतिभास भिन्न होनेपर भी संवेदन एक हो है क्योंकि उन आकारोंका उससे विवेचन-विश्लेषण करना अशक्य है ? जैन-तो हमारे भी इस कथनका कि 'सुखादि अनेक आकारोंका प्रतिभास होनेपर भी आत्मा एक ही है क्योंकि उन आकारोंका उससे विवेचन करना सदा अशक्य है' आप कैसे निराकरण कर सकते हैं ? स्पष्ट है कि जिस प्रकार एक संवेदनके वेद्यादि आकार दूसरे संवेदनको प्राप्त करनेमें अशक्य हैं, अतः वे अशक्यविवेचन हैं और इसलिये संवेदन एक है उसी प्रकार आत्माके सुखादिक आकार दूसरी आत्माको प्राप्त करने में सदा अशक्य हैं, इसलिये वे अशक्यविवेचन हैं, इस तरह एक ही आत्मा कैसे नहीं हो सकता है ? जो जैसा प्रतिभासित होता है उसका वैसा ही व्यवहार करना चाहिये, जैसे वेद्यादि आकारात्मक एक संवेदनरूपसे प्रतिभासित होनेवाला संवेदन। और सुख, ज्ञान आदि अनेक आकारोंमें एक आत्मारूपसे प्रतिभासित होनेवाला आत्मा है, इस कारण ( वैसा उनमें एक आत्माका ) व्यवहार करना चाहिये। इसतरह सुखादि अनेक आकार रूपसे प्रतिभासित होनेवाले अन्तः-आत्माका निराकरण नहीं किया जा सकता है। 1. 2. द 'नेतुमशक्यविवेचनाः' । 3. द स 'कथमेक एवात्मनः कथमेक एवात्मना । 4. मु 'नातः'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy