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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८४ चेत्, न; समोपदेशव्यवधानोपगमप्रसङ्गात् । तथा च समीपदेशव्यवाधयकं वस्तु व्यवधीयमानपरमाणुभ्यां संसृष्टं व्यवहितं वा स्यात् ?, गत्यन्तराभावात् । न तावत्संसृष्टं तत्संसर्गस्य सर्वात्मनैकदेशेन वा विरोधात् । नाऽपि व्यवहितम, व्यवधायकान्तरपरिकल्पनानुषङ्गात् । व्यवधायकान्तरमपि व्यवधीयमानाभ्यां संसृष्टं व्यवहितं चेति पुनः पर्यनुयोगेऽनवस्थानादिति क्वात्यासन्नाऽसंसृष्टरूपाः परमाणवो बहिः सम्भवेयुः ये प्रत्यक्षविषयाः स्युस्तेषां प्रत्यक्षा विषयत्वे च न कार्यलिङ्गं स्वभावलिङ्ग वा परमाण्वात्मकं प्रत्यक्षतः सिद्ध्येत्, परमाण्वात्मकसाध्यवत् । क्वचित्तदसिद्धौ च न कार्यकारणयोाप्यव्यापकयोर्वा तद्धावः सिद्ध्येत्, प्रत्यक्षानुपलम्भव्यतिरेकेण तत्साधनासम्भवात् । तदसिद्धौ च न स्वार्थानुमानमुदियात्*, तस्य लिङ्गदर्शनसम्बन्धस्मरणाभ्यामेवोदय
सौत्रा०-बात यह है कि दूर देशका व्यवधान न होनेसे उन्हें अत्यन्त निकटवर्ती कहा जाता है ? __ जैन-तो इसका मतलब यह हुआ कि आप उनके समीपदेशका व्यवधान स्वीकार करते हैं और उस दशामें आपको यह बतलाना पड़ेगा कि समीपदेशरूप व्यवधायक वस्तु व्यवधीयमान परमाणुओंसे सम्बद्ध है या व्यवहित ? अन्य विकल्पका अभाव है। सम्बद्ध तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह सम्बन्ध सम्पूर्णपने और एकदेश दोनों तरहसे भो नहीं बनता है। व्यवहित भी वह नहीं है, क्योंकि अन्य व्यवधायकको कल्पनाका प्रसंग आता है, कारण वह अन्य व्यवधायक भी व्यवधीयमान परमाणुओंसे सम्बद्ध है या व्यवहित ? इस तरह पुनः प्रश्न होनेपर अनवस्था प्राप्त होतो है। ऐसी स्थितिमें अत्यन्त निकटवर्ती और असम्बद्धरूप बाह्य परमाणु कहाँ सम्भव हैं, जो प्रत्यक्ष के विषय हों ? और जब वे प्रत्यक्षके विषय नहीं हैं तब परमाणुरूप कार्यलिङ्ग हेतु अथवा स्वभावलिङ्ग हेतु भी प्रत्यक्षसे सिद्ध नहीं होता, जैसे परमाणुरूप साध्य। और जब वे परमाणुरूप साध्य तथा साधन दोनों असिद्ध हैं तो कार्य-कारणमें कार्य-कारणभाव और व्याप्य-व्यापकमें व्याप्य-व्यापकभावरूप सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रत्यक्ष-अन्वय और अनुपलम्भ-व्यतिरेकके बिना उसको सिद्धि सम्भव नहीं है और उसकी सिद्धि न होनेपर स्वार्थानुमान उत्पन्न
1. द स 'क्वात्यासन्नाः संसृष्ट-' । 2. द 'प्रत्यक्षविषयत्वे । 3. मु 'च' नास्ति । 4. मुः 'मुदियात्' ।
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