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________________ कारिका ७९ ] ईश्वर-परीक्षा २०५: ग्यसम्पन्नो धर्मविशेषैश्वर्ययोगी च प्रकृष्टसत्त्वस्याविर्भावात् विशिष्टदेहत्वाच्च । न पुनरीश्वरस्तस्याकाशस्येवाऽशरीरस्य ज्ञानेच्छाक्रियाशक्त्यसम्भवात्, मुक्तात्मवत् । सदेहस्यापि सदा क्लेशकर्मविपाकाशयैरामृष्टत्वविरोधात् । धर्मविशेषसद्भावे च तस्य तत्साधनसमाधिविशेषस्यावश्यम्भावात् तन्निमित्तस्यापि ध्यानधारणाप्रत्याहारप्राणायामासनयमनियमलक्षणस्य योगाङ्गस्याभ्युपगमनीयत्वात् । अन्यथा समाधिविशेषासिद्धर्धर्मविशेषानुत्पत्तर्ज्ञानाद्यतिशयलक्षणैश्वर्यायोगादनीश्वरत्वप्रसङ्गात् । सत्त्वप्रकर्षयोगित्वे च कस्यचित्सदामुक्तस्यानुपायसिद्धस्य साधकप्रमाणाभावादिति निरीश्वरसांख्यवादिनः प्रचक्षते; तेषां कपिलोऽपि तीर्थकरत्वे. नाभिप्रेतः प्रकृतेनैवेश्वरस्य मोक्षमार्गोपदेशित्वनिराकरणेनैव प्रतिव्यूढः प्रतिपत्तव्यः, स्वतस्तस्यापि ज्ञानादर्थान्तरत्वाविशेषात्सर्वज्ञत्वायोगात् । तमका सर्वथा अभाव है। इसके अतिरिक्त वह समस्त तत्त्वज्ञान और वैराग्यसे युक्त है तथा धर्मविशेष ऐश्वर्यसे सहित है, क्योंकि उत्कृष्ट सत्त्वका उसके आविर्भाव-सद्भाव है और विशिष्ट शरीरवाला है। परन्तु महेश्वर ऐसा नहीं है। वह आकाशकी तरह अशरीरी है और इसलिये उसके ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति और प्रयत्नशक्ति ये तोनों हो शक्तियाँ सम्भव नहीं हैं, जैसे वे मुक्तात्माके असम्भव हैं । यदि उसे सदेह भी माना जाय तो वह सदा क्लेश, कर्म, विपाक और आशयोंसे रहित नहीं हो सकता है-सदेह भी हो और सदा क्लेशादिसे रहित भी हो, यह नहीं बन सकता है। इसी प्रकार यदि उसके धर्मविशेषका सद्भाव हो तो उसके साधनभूत समाधिविशेषका मानना भी आवश्यक है और उसके कारण ध्यान, धारणा, प्रत्याहार प्राणायाम, आसन, यम और नियम इन योगाङ्गोंको भी मानना उचित है। अन्यथा उसके समाधिविशेष सिद्ध नहीं हो सकता और उसके सिद्ध न होनेपर धर्मविशेष उत्पन्न नहीं हो सकता और उस हालतमें ज्ञानादि अतिशयरूप ऐश्वर्यसे युक्त न होनेसे उसके अनीश्वरपनेका प्रसङ्ग आता है। और सत्त्वप्रकर्षवाला माननेपर सदामुक्त एवं अनुपायसिद्ध नहीं बनता, क्योंकि उसका साधक प्रमाण नहीं है। अतः कपिल ही मोक्षमार्गका उपदेशक है, ईश्वर नहीं ? जैन-तीर्थङ्कररूपसे माना गया आपका कपिल भी महेश्वरकी तरह मोक्षमार्गका उपदेशक सिद्ध नहीं होता, क्योंकि स्वयं वह भी ज्ञानसे सर्वथा भिन्न है और इसलिये सर्वज्ञ नहीं है । सांख्य-कपिलके सर्वार्थज्ञान ( समस्त पदार्थविषयक ज्ञान ) का संसर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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